Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charitra Part 3
Author(s): Ganesh Lalwani, Rajkumari Bengani
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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'बुद्धिमान मनुष्य लोभ रूप महासागर से चतुर्दिक प्रसारित प्रचण्ड तरंगों को सन्तोष रूपी बांध द्वारा निवृत्त करते हैं। मनुष्यों में जिस प्रकार चक्रवर्ती और देवों में इन्द्र श्रेष्ठ हैं उसी प्रकार सभी गुणों में सन्तोष गुण सर्वश्रेष्ठ है। सन्तोषी मुनि और असन्तोषी चक्रवर्ती के सुख-दुःख की तुलना की जाए तो दोनों के सुख-दुःखों का उत्कर्ष प्रायः समान ही मिलेगा। अर्थात् सन्तोषी मुनि जितने सुखी हैं असन्तोषी चक्रवर्ती उतना ही दुःखी है। इसलिए चक्रवर्ती सम्राट भी राज्य और तृष्णा परित्याग कर निःसंगता द्वारा सन्तोष रूपी अमृत को प्राप्त करते हैं।
__(श्लोक ३३१-३३४) 'कान बन्द कर लेने पर भी भीतर के शब्दाद्वैत जिस प्रकार स्वतः ही वद्धित होते हैं उसी प्रकार धन का लोभ परित्याग कर देने पर सम्पत्ति स्वत: आकर उपस्थित हो जाती है। नेत्र बन्द कर लेने पर समस्त विश्व जिस प्रकार आवृत्त हो जाता है उसी प्रकार सन्तोष धारण कर लेने पर प्रत्येक वस्तु से विरक्ति स्वतः ही उत्पन्न हो जाती है। तदुपरान्त उसे इन्द्रिय दमन और कायक्लेश की आवश्यकता ही नहीं रहती। सन्तोषधारी व्यक्ति की ओर मोक्ष लक्ष्मी भी स्वतः ही आकृष्ट हो जाती है। जो सन्तोष द्वारा तुष्ट हैं वे जीवन में ही मुक्ति का अनुभव करते हैं। राग द्वेष युक्त विषय भोग में ऐसा क्या सुख है जिसके लिए सन्तोष से उत्पन्न मुक्ति सुख का निरादर किया जाए ? उस शास्त्र-वाक्य की भी क्या आवश्यकता है जो अन्य को तृप्त करने का विधान देता है ? जिनकी इन्द्रियां मलिन हैं, जो विषयासक्त हैं, उनके लिए उचित है वे मन को स्वच्छ कर सन्तोष जात सुख की खोज करें। यदि तुम कहते हो कि कारण के अनुसार ही कार्य होता है तब सन्तोष के आनन्द से ही मोक्ष का आनन्द प्राप्त हो जाता है यह तुम्हें स्वीकार करना होगा। जो उग्र तप कर्म को निर्मल करने में समर्थ है वह उग्र तप भी यदि सन्तोष रहित है तो निष्फल है।
(श्लोक ३३५-३४२) 'सन्तोषी आत्मा के लिए क्या कृषि, क्या नौकरी, क्या पशुपालन, क्या व्यवसाय उसे तो किसी की भी आवश्यकता नहीं रहती। कारण सन्तोषामृत पान करने से उसकी आत्मा निवृत्ति सुख को