Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charitra Part 3
Author(s): Ganesh Lalwani, Rajkumari Bengani
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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अनन्त बलयुक्त सैन्य को पराजित कर दिया था अतः जातक का नाम रखा गया अनन्तजीत । यह जातक मातृ-स्तन पान न कर योगी जैसे ध्यानामृत पान करता है वैसे ही स्व-अंगुष्ठ का अमृत पान कर वद्धित होने लगा। क्रमशः शैशव अतिक्रम कर चन्द्र की भांति उन्होंने पूर्ण यौवन प्राप्त किया। आप ५० धनुष दीर्घाकार थे।
(श्लोक ४७-४९) पथिक जिस प्रकार परित्याग के लिए आश्रय का संधान करता है वैसे ही पिता की आज्ञा से, परित्याग करूंगा यही सोचकर, उन्होंने विवाह किया। साढ़े सात लाख वर्ष व्यतीत हो जाने पर पिता को आनन्दित करने के लिए उन्होंने राज्यभार भी ग्रहण किया। पन्द्रह लाख वर्ष तक राज्य शासन किया तदुपरान्त उनके मन में संसार-परित्याग की इच्छा जाग्रत हुई। उसी समय ब्रह्मलोक से सारस्वत आदि लोकान्तिक देव उनके निकट आए और बोले, हे देव, अब तीर्थ स्थापित कीजिए। कुबेर द्वारा प्रेरित और जम्भक देवों द्वारा लाए अर्थ को प्रभु ने एक वर्ष तक दान किया। बरसी दान की समाप्ति पर देव असुर और नरेन्द्रों ने मुमुक्षु प्रभु का स्नानाभिषेक सम्पन्न किया। तत्पश्चात् त्रिलोकनाथ चन्दन वस्त्राभूषण और माल्यादि धारण कर सागरदत्ता नामक उत्तम शिविका पर आरूढ़ हुए। उनके छत्र चँवर और पंखों को शक्रादि देवों ने वहन किया। इस भांति प्रभु शिविका पर आरोहण कर सहस्राम्रवन उद्यान में पहुंचे।
(श्लोक ५०-५७) प्रभु मनसिज की भांति उस उद्यान में प्रविष्ट हुए जहां नगरनारियां खेचरियों की भांति प्रेखा में झूल रही थी। उस उद्यान ने अशोक के नव-उद्गत किसलयों से रक्तिम वर्ण धारण कर रखा था। वनलक्ष्मी की चंचल अलकावलियों की तरह मधुपान में मतवाले भ्रमर इधर-उधर उड़ रहे थे। नव पल्लव उद्गत कर पंखों के आन्दोलन से मानो आम्रवृक्ष नगर-नगरियों के क्रीडाजनित श्रम का अपहरण कर रहे थे। कुण्डल की तरह कर्णिकार पूष्प बसन्त लक्ष्मी के कानों में लटक रहे थे और कचनार के पुष्पों ने उसके कपोलों पर स्वर्ण-तिलक की रचना कर रखी थी। कोकिल कुहू-कुहू शब्दों से मानो उनका स्वागत कर रहा था।
(श्लोक ५८-६२) शक्र के हाथों पर हाथ रखकर प्रभु सागरदत्ता शिविका से