Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charitra Part 3
Author(s): Ganesh Lalwani, Rajkumari Bengani
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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[२०५ दक्षिण भरतार्द्ध को जय कर लिया। मगध में उन्होंने जिस शिला को एक कोटि लोग उठाने में समर्थ नहीं हो रहे थे उसे हँसते-हँसते उठा लिया और पृथ्वी के आच्छादन की भांति पुनः रख भी दिया। समुद्र-तरंगों से अभिसिञ्चित होते हुए वे पुनः अपनी नगरी द्वारिका लौट आए। वहां सोम, बलराम और अन्यान्य राजन्यों द्वारा अर्द्धचक्री रूप में सानन्द उनका अभिषेक सम्पन्न कर दिया गया।
(श्लोक १९२-१९५) ___ अनन्तनाथ स्वामी तीन वर्ष तक छद्मस्थ रूप में विचरण करते हुए सहस्राम्रवन उद्यान में पहुंचे। वहां अशोक वृक्ष के नीचे जब वे ध्यानमग्न थे उनके घाती कर्म संसार के बन्धन की तरह छिन्न हो गए । वैशाख कृष्णा चतुर्दशी को चन्द्र जब रेवती नक्षत्र में अवस्थित था तब दो दिनों के उपवासी प्रभु को केवल ज्ञान प्राप्त हुआ। देव निर्मित समवसरण में भगवान ने यश आदि पचास गणधरों के सम्मुख देशना दी।
(श्लोक १९६-१९९) उसी समवसरण में रक्तवर्ण त्रिमुख पाताल नामक यक्ष उत्पन्न हुए। मकर उनका वाहन था। उनके दाहिनी तरफ के तीन हाथों में कमल, तलवार और पाश थे। बाएँ तीनों हाथों में नकुल, ढाल और अक्षमाला थो। वे अनन्तनाथ स्वामी के शासनदेव हुए। इसी प्रकार शुभ्रवर्णा, कमल वाहना अंकुशा देवी उत्पन्न हुई। जिनके दाहिने दोनों हाथों में तलवार और पाश था एवं बाएँ दोनों हाथों में ढाल व अंकुश था। ये अनन्तनाथ स्वामी की शासन देवी बनीं। मोक्ष के उत्तम द्वार रूप अनन्तनाथ स्वामी शासन देव-देवी सहित पृथ्वी पर विचरण करते हुए द्वारिका नगरी में उपस्थित हुए । शक एवं अन्य देवों ने वहां ६०० धनुष दीर्घ चैत्य वृक्ष सहित समवसरण की रचना की। भगवान अनन्तनाथ ने पूर्व द्वार से प्रवेश कर विशाल चैत्य वक्ष को तीन प्रदक्षिणा दी। 'नमो तित्थाय' कहकर पूर्व दिशा में रखे रत्न-सिंहासन पर पूर्वाभिमुख होकर बैठ गए। पर्षद भी यथायोग्य स्थान पर जाकर बैठ गयीं । व्यन्तर देवों ने प्रभु की तीन प्रतिमूर्ति निर्माण कर अन्य तीन ओर रखे रत्न-सिंहासनों पर रख
(श्लोक २००-२०८) राजकीय अनुचरों ने वासुदेव पुरुषोत्तम को १४वें तीर्थङ्कर के समवसरण की सूचना दी। वासुदेव ने संवादवाहक को बारह
दीं।