Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charitra Part 3
Author(s): Ganesh Lalwani, Rajkumari Bengani
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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[२०९ कोई गुण नहीं है; किन्तु मिथ्यात्वी होने पर भी उसमें (संतोष, सरलता और यथाप्रवृत्तिकरण से लेकर ग्रन्थी भेद तक जाना और उसके भी आगे अपूर्वकरण अवस्था प्राप्त करना रूप) गुण रहने से इसे गुणस्थान कहा जाता है।' __ "अनन्तानुबन्धी कषाय का उदय होने पर भी मिथ्यात्व का उदय नहीं होने से द्वितीय गुणस्थान को सास्वादन-सम्यक्दृष्टि गुणस्थान बोला जाता है । इसकी अधिक से अधिक स्थिति छह आवलिका है। इस अवस्था में नष्ट हो जाने लगे सम्यक्त्व का किञ्चित् आस्वाद रहता है अतः इसे गुणस्थान कहा जाता है।' ३ 'सम्यक्त्व और मिथ्यात्व के मिश्रण से इसे मिश्र गुणस्थान कहा
जाता है । इसकी स्थिति अन्तर्मुहूर्त मात्र है।' ४ अनन्तानुबन्धी कषाय, मिथ्यात्व मोहनीय, मिश्र मोहनीय के
क्षयोपशमादि से आत्मा यथार्थ दृष्टि को प्राप्त करती है; परन्तु इस गुणस्थान में अप्रत्याख्यानावरण कषाय का उदय रहता है।
इसलिए इसे अविरत-सम्यक् दृष्टि गुणस्थान कहा जाता है।' ५ 'अप्रत्याख्यानावरण कषाय के क्षयोपशमादि से और प्रत्याख्या
नावरण कषाय के उदय से विरताविरत वा देश विरत गुणस्थान होता है। (इस प्रकार के गुणस्थान का अधिकारी सद्गृहस्थ
सांसारिक भोग भोगते हुए भी निवृत्ति को उपादेय मानते हैं।) ६ 'प्रमत्त संयत गुणस्थान के अधिकारी सर्वविरत संयत होने पर
भी सम्पूर्ण प्रमाद रहित नहीं होते।' ७ "अप्रमत्त संयत गुणस्थान के अधिकारी सर्व विरत संयत महा
पुरुष होते हैं । षष्ठ और सप्तम गुणस्थान परस्पर परावृत्ति से - अन्तर्मुहूर्त स्थितियुक्त है।' ८ 'अपूर्वकरण गुणस्थान में स्थित आत्मा के कर्मों की स्थितिघात
आदि अपूर्व होते हैं। ऐसी स्थिति आत्मा में पूर्व में नहीं हुई। वह इस अवस्था में अपने कर्म-शत्रुओं को निर्जीर्ण करता है और आगे अग्रसर होने को तैयार होता है। अर्थात् उपशम श्रेणी व क्षपक श्रेणी के लिए तत्पर होता है। इस अवस्था को प्राप्त आत्मा के बादर कषाय निवृत्त हो जाते हैं। इसलिए इस गुण
स्थान को निवत्तिबादर गूणस्थान कहते हैं।' ९ 'जिस गुणस्थान में आए मुनियों के बादर कषाय के निवृत्त