Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charitra Part 3
Author(s): Ganesh Lalwani, Rajkumari Bengani
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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पर धारण कर खोला । उसमें लिखा था - 'पुत्र, शीघ्र लौट आओ ।' चिन्तित होकर उन्होंने दूत से पूछा 'मेरी माँ अच्छी है तो ? पिताजी कैसे हैं ? उन्होंने अचानक मुझे कैसे बुलवाया है ?' दूत ने उत्तर दिया- ' महाराज ने आपको शीघ्र बुलाया है कारण उनकी देह में दाह-ज्वर उत्पन्न हुआ है।' इस संवाद से दुःखी, मानो सप्तच्छद की गन्ध नाक में गई हो इस प्रकार पुरुषसिंह राजधानी लौटने के लिए शीघ्र रवाना हुए। महापुरुषों की वेदना ऐसी ही होती है । ( श्लोक ८७-९४) दूसरे दिन वासुदेव अपने नगर में पहुंचे । दावाग्नि की भाँति उस संवाद की वेदना समस्त पथ उन्हें पीड़ित करती रही । पिता की वेदना से दुखी वे मानो उस वेदना को स्वयं में ग्रहण कर रहे हों इस भाँति पिता के उस कक्ष में प्रवृष्ट हुए जहाँ दाह-ज्वर से पीड़ित पिता अवस्थित थे । वहाँ अनुचरगण बहुत किस्म की औषधियाँ काट रहे थे, पीस रहे थे, पका रहे थे, विचक्षण वैद्य प्राज्ञ वहां उपस्थित थे जो कि रस के गुणावगुण, शक्ति व प्रभाव के सम्यक् परिज्ञाता थे । वहां शब्द न हो इसलिए रक्षकगण हाथों के इशारे से निषेध कर रहे थे और वैद्यगण भ्रू -भंगिमा के इशारे से ari कितनी दूर खड़ा होना होगा यह बता रहे थे । ( श्लोक ९५-९८ )
वासुदेव ने पिता के चरण-स्पर्श किए और भक्ति जन्य उदात्त अश्रुजल से उन्हें प्रक्षालित कर डाला । पुत्र का स्पर्श पाकर राजा शिव को कुछ स्वस्थता महसूस हुई। प्रियजनों का तो दर्शन मात्र से ही आनन्द होता है, स्पर्श की तो बात ही क्या है ? उन्होंने बारबार अपने पुत्र को हाथों द्वारा स्पर्श किया । उस स्पर्श से उनका शरीर रोमांचित हो गया मानो वे शीतल हो रहे हों । राजा बोले - 'तुम्हारा शरीर शीर्ण क्यों दिखाई पड़ रहा है ? तुम्हारी जिह्वा आग के निकटस्थ वृक्ष की भांति शुष्क क्यों है ?' तब वासुदेव के अनुचर ने प्रत्युत्तर दिया- 'महाराज, आपकी अस्वस्थता का संवाद पाकर कुमार बिना एक पल भी रुके यहां के लिए रवाना हो गए । दो दिनों से खाना तो दूर जल तक बिना पिए हस्ती जैसे विन्ध्याचल पर्वत के निकट जाता है वैसे ही आपको स्मरण करते हुए ये यहां उपस्थित हुए हैं ।' ( श्लोक ९९ - १०५ ) यह सुनकर राजा शिव की वेदना जैसे द्विगुणित हो उठी ।