Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charitra Part 3
Author(s): Ganesh Lalwani, Rajkumari Bengani
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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रहे थे तो अब मैं तुम्हारा असली युद्ध कैसा है वह भी देख लूँगा ? वह युद्ध देखने ही मैं यहां आया हूं। शत्रु के धन - रत्न को ग्रहण करने वाला योद्धा यदि दस्यु होता है तब तो प्रथम दस्यु तुम स्वयं हो । किसने तुमको यह सब दिया था चक्र निक्षेप के पश्चात् यदि किसी को पलायन करना है तो तुम अभी भाग जाओ । क्योंकि दस्यु और काक को भागने में लज्जा कैसी ? चक्र निक्षेप करो ताकि मृत्यु के पूर्व ही चक्र की शक्ति कैसी है इस सम्बन्ध में निःसन्देह हो सको ।' ( श्लोक १५२ - १५५) यह सुनकर मानो द्वितीय मङ्गल ग्रह हो ऐसे ज्वालामय उस चक्र को मेरक ने मस्तक पर घुमाकर शत्रु पर निक्षेप किया । वह चक्र करताल जिस प्रकार एक दूसरे करतान पर गिरती है उसी प्रकार वासुदेव के वक्ष पर आकर गिरा । चक्र के उद्गत नाभि के अग्रभाग के आघात से चकित होकर वे रथ के पाटातन पर गिर पड़े । उनकी आंखें शराबी की तरह रक्तवर्ण हो गईं । बलदेव भ्रातृप्रेम के कारण उनके सिर को अपनी गोद में लेकर सजल नेत्रों से कहने लगे – 'भाई, उठो, जागो ।' भाई के अश्रुजल से सिक्त होने से वासुदेव की संज्ञा लौटी और 'ठहर, ठहर' कहते हुए खड़े हो गए । तदुपरान्त शत्रु के सौभाग्यरूपी चक्र को अपने हाथों में ग्रहण कर और स्व-सैन्य को विस्मय से विस्फारित नेत्रों वाला बनाते हुए मेरक से बोले – 'यह अस्त ही तुम्हारा सर्वस्व था और यही तुम्हारा आयुष्य है । सर्प की मणि की तरह वह आज तुम्हारे हाथ से निकल गया है । अब किसके सहारे खड़े हो ? भाग जाओ । स्वयम्भू युद्ध क्षेत्र से भागते शत्रु की हत्या नहीं करता । ( श्लोक १५६ - १६३) मेरक बोला- 'चक्र निक्षेप करो । तू भी अब इसकी शक्ति देख । जो अर्द्धचक्री की स्त्री नहीं हो सकी वह अब सामान्य राजा की क्या स्त्री बनेगी ? ( श्लोक १६४ )
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इन वचनों से अभिहित होकर वासुदेव ने उस चक्र को घुमा कर फेंका । उसने सहज ही कमलनाल की तरह मेरक का सिर काट डाला । स्वयम्भू पर आकाश से पुष्पवर्षा हुई और मेरक का धड़ धरती पर गिर पड़ा। जो सब राजा मेरक के अधीन थे वे सब अब वासुदेव की शरण में आ गए। किन्तु वर ( श्लोक १६५ - १६७ )
बाराती तो वही रहे;
बदल गया ।