Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charitra Part 3
Author(s): Ganesh Lalwani, Rajkumari Bengani
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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अंगारादि १५ कर्मादान का कार्य करना, अशुभ नाम कर्म बन्ध का कारण है। इसके विपरीत संसार भय, प्रमाद त्याग, चारित्र धारण, क्षान्ति आदि गुण धार्मिक व्यक्ति का दर्शन और उनका सेवा-सत्कार शुभनाम कर्म यहाँ तक कि तीर्थंकर नाम कर्म बन्ध का कारण है।'
(श्लोक ११७-१२५) 'अर्हत्, सिद्ध, गुरु, स्थविर, बहुश्रु त, संघ, श्रु तज्ञान, साधु भक्ति, आवश्यकादि क्रिया, चारित्र, ब्रह्मचर्य पालन में अप्रमाद, विनय, ज्ञानाभ्यास, तप, त्याग (दान), शुभ ध्यान, प्रवचन प्रभावना, चतुर्विध संघ में शान्ति रखना, साधु सेवा, अपूर्वज्ञान ग्रहण और सम्यक् दर्शन में शुद्धता इन बीस स्थानकों को प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर स्पर्श करते हैं। अन्य तीर्थंकर एक दो या तीन स्थानकों का स्पर्श करते हैं।
(श्लोक १२६-१२९) ____ 'परनिन्दा, अवज्ञा, उपवास, सद्गुणों का लोप अथवा असद् दोषों की प्रतिष्ठा, आरोहण, आत्म-प्रशंसा, जो गुण स्वयं में है या नहीं उसका प्रचार, स्वयं के दोषों का वर्णन और जाति मद (अभिमान) नीच गोत्र कर्म-बन्ध का कारण है। इसके विपरीत अ-मान, मन, वचन और काया द्वारा विनय उच्च गोत्र कर्म-बन्ध का कारण है।
(श्लोक १३०-१३१) 'दान, लाभ, वीर्य भोग और उपभोग में सकारण या अकारण विघ्न डालना, बाधक बनना अन्तराय कर्म बन्ध का कारण है।'
(श्लोक १३२) __'इस भांति आश्रव से उत्पन्न इस अपार संसार रूपी समुद्र को बुद्धिमान व्यक्तियों को दीक्षा रूपो जहाज के द्वारा अतिक्रम करना उचित है।'
(श्लोक १३३) 'चन्द्र किरणों से जिस प्रकार रात में विकसित होने वाली वाली कुमुदिनी विकसित होती है उसी प्रकार प्रभ की देशना से अनेक प्रबुद्ध हुए और हजारों लोग दीक्षित हो गए। भगवान के वराहादि ८८ गणधर हुए। भगवान् की देशना के पश्चात् प्रथम गणधर ने अपनी देशना दी। गणधर की देशना के पश्चात् देव
और असुर नन्दीश्वर द्वीप में अट्ठाईस महोत्सव मनाकर स्व-स्व निवास को लौट गए।
(श्लोक १३४-१३७) भगवान् के तीर्थ में कूर्मवाहन, श्वेतवर्ण, अजित नामक यक्ष