Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charitra Part 3
Author(s): Ganesh Lalwani, Rajkumari Bengani
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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जया बोली
( श्लोक ६३-६४ )
'पुत्र, जिस दिन तुमने जन्म ग्रहण किया उसी दिन हमारी और इस पृथ्वी के सभी की इच्छाएँ पूर्ण हो गईं। फिर भी हम तुम्हें कुछ कहेंगे । कारण अमृत पान से कोई कभी तृप्त हुआ है ? मध्य देश, वत्सदेश, गौड़, मगध, कौशल, तोषल, प्राग्ज्योतिष, नेपाल, विदेह, कलिंग, उत्कल, पुण्ड्र, ताम्रलिप्त, मूल, मलय, मुद्गर, मल्लवर्त्त, ब्रह्मोत्तर और अन्य देश जो कि पूर्वांचल के अलंकार तुल्य हैं, डाहल, दशार्ण, विदर्भ, अस्मक, कुन्तल, महाराष्ट्र, आन्ध्र, मूरल, क्रठ, कैशिक, सुर्पार, केरल, द्रमिल, पाण्ड्य, दण्डक, चौड़, नासिक्य, कोंकण, कौवेर, वानवास, कोल्ल, सिंहल और दक्षिणांचल के अन्य देश, सौराष्ट्र, त्रिवण, दशेरक, अबुद, कच्छ, आवर्तक, ब्राह्मणवाह, यवन, सिन्धु आदि पश्चिमांचल के राज्य, शक, केकय, वोक्काण, हूण, वाणायुज, पांचाल, कुलट, काश्मीरिक, कम्बोज, वाल्हिक, जांगल, कुरु और उत्तरांचल के अन्य राज्य और भरत क्षेत्र के दक्षिणार्द्ध के सीमा निर्देशक वैताढ्य पर्वत की उभय श्रेणी के निवासी मानव और विद्याधरों के मध्य के उच्चकुल जात समर्थ वीर वैभवशाली विख्यात चतुरंगिनी सेनाओं के अधिपति प्रजापालक निष्कलंक सत्यरक्षाकारी धार्मिक वर्तमान राजन्यगण दूतों के द्वारा अपनी-अपनी कन्याएँ तुम्हें देने के लिए बहुमूल्य उपहार आदि के साथ भेजकर हमारी अनुमति चाह रहे हैं । उनकी कन्याओं के साथ तुम्हारा विवाहोत्सव देखकर हमारी और उनकी इच्छाएँ पूर्ण हों । तुम वंश-परम्परा से प्राप्त इस राज्य भार को ग्रहण करो । वृद्धावस्था में अब व्रत ग्रहण करना ही हमारे लिए समीचीन है ।' ( श्लोक ६५-८२)
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यह सुनकर वासुपूज्य बोले- 'मेरे प्रति स्नेह के कारण आपने जो कुछ कहा वह उचित ही है, किन्तु भव अरण्य में बार-बार विचरण करते-करते मैं अब भारवाही वृषभ की तरह क्लान्त हो गया हूं । संसार में ऐसा कौन देश, नगर, ग्राम, खनि, पर्वत, अरण्य, नदी, नवद्वीप और समुद्र है जहाँ मैंने अन्तकाल से रूप परिवर्तन कर भ्रमण नहीं किया जन्म-जन्मान्तरों के कारण रूप संसार को अब मैं छिन्न करना चाहता हूं। पार्थिव जीवन के दोहद रूप विवाह और राज्य से मुझे कोई प्रयोजन नहीं है । पृथ्वी ने और आप लोगों