Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charitra Part 3
Author(s): Ganesh Lalwani, Rajkumari Bengani
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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प्राणत नामक स्वर्ग में पद्मोत्तर राजा के जीव ने सुखमय जीवन व्यतीत कर आयुष्य पूर्ण होने पर वहाँ से च्युत होकर ज्येष्ठ शुक्ला नवमी को चन्द्र जब शतभिषा नक्षत्र में था, जयादेवी के गर्भ में प्रवेश किया। सुख-शय्या में सोई जया देवी ने तीर्थंकर के जन्म सूचक चतुर्दश महास्वप्न देखे । गिरिकन्दरा जैसे सिंह को, मेघावलि जैसे चन्द्र को धारण करती है वैसे ही उन्होंने उस श्रेष्ठ भ्रूण को धारण किया। फाल्गुन माह की कृष्णा चतुर्दशी को चन्द्र जब शतभिषा नक्षत्र में था उन्होंने महिष लाञ्छन रक्तवर्ण एक पुत्र को जन्म दिया।
(श्लोक २९-३३) सिंहासन कम्पित होने से ५६ दिक् कुमारियाँ वहाँ आईं और प्रभु एवं उनकी माता के जन्मकृत्य सम्पन्न किए। पालक विमान में बैठकर इन्द्र देवों सहित वहाँ आए एवं प्रभु सहित प्रभु-गृह की परिक्रमा दी। तदुपरान्त गृह-प्रवेश कर प्रभु की माता को अवस्वापिनी निद्रा में निद्रित कर उनके पार्श्व में प्रभु का एक प्रतिरूप रखा। फिर पाँच रूप धारण कर एक रूप से प्रभु को गोद में लिया, दूसरे रूप से छत्र धारण किया, तीसरे-चौथे रूप से प्रभु के अगलबगल चँवर बीजने लगे और पंचम रूप में प्रभु के आगे नृत्य करते हुए चलने लगे। शक्र प्रभु को लेकर मेरु पर्वत की अतिपाण्डुकवला गए और उन्हें गोद में लेकर एक रत्न-सिंहासन पर बैठ गए। तत्पश्चात् अच्युतादि चौसठ इन्द्रों ने तीर्थों से जल मँगवाकर प्रभ को स्नान कराया। फिर मानो वे प्रभु को अपने हृदय में स्थानापन्न कर रहे हों इस प्रकार ईशानेन्द्र की गोद में स्थापित किया। भक्ति निष्पन्न शक ने चारों दिशाओं में चार स्फटिक के वषभ निर्मित किए। अन्य इन्द्रों से भिन्न रूप में स्नान कराने के लिए उन्होंने वृषभों के शृगों से निःसृत जल से प्रभु को स्नान कराया। तदुपरांत वषभों का विलय कर प्रभु के शरीर को पोंछकर गोशीर्ष चन्दन का विलेपन किया। फिर वस्त्रालंकारों और पुष्पों से उनकी पूजा कर इस प्रकार स्तुति करने लगे :
(श्लोक ३४-४४) 'हे भगवन्, जो कर्म चक्रवर्ती, अर्द्धचक्रवर्ती के चक्र द्वारा भी छिन्न नहीं हो सकता व ईशानेन्द्र के त्रिशूल और शक के वज्र द्वारा या अन्य इन्द्रों के अस्त्रों द्वारा भी छिन्न नहीं होता वह कर्म तुम्हारे दर्शन मात्र से ही छिन्न हो जाता है। दुःखों का जो ताप क्षीर-समुद्र