Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charitra Part 3
Author(s): Ganesh Lalwani, Rajkumari Bengani
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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उसी प्रकार खोल दिए जैसे फाल्गुन में वृक्ष अपने पत्रों को झार देते हैं। इन्द्र द्वारा प्रदत्त देवदूष्य कंधे पर धारण कर एक दिन के उपवासी प्रभु ने फाल्गुन मास की अमावस्या तिथि के अपराह्न में चन्द्र जब वरुणा नक्षत्र में अवस्थित था तब छह सौ राजाओं सहित पंचमुष्ठि केश उत्पाटन कर दीक्षा ग्रहण कर लो । देवेन्द्र, असुरेन्द्र
और नरेन्द्र त्रिलोकीनाथ को प्रणाम कर दान के अन्त में प्रार्थी जैसे घर लौट जाता है उसी प्रकार स्व-स्व आवास को लौट गए।
(श्लोक १२३-१२६) दूसरे दिन महापुर के राजा सुनन्द के घर क्षीरान्न ग्रहण कर उपवास का पारणा किया। रत्नवर्षा आदि पंच दिव्य देवों ने प्रकट किए और त्रिलोकनाथ के चरण-चिह्नों पर राजा सुनन्द ने रत्नवेदी का निर्माण करवाया। तदुपरान्त प्रभु वहाँ से वायु की भाँति ग्राम, खान नगर आदि में विचरण करने लगे। (श्लोक १२७-१२९)
पृथ्वीपुर नामक नगर में राजाओं के मुकुटमणि रूप पवनवेग नामक एक राजा थे। दीर्घकाल तक राज्य करने के पश्चात् ठीक समय श्रमण सिंह मुनि से उन्होंने दीक्षा ग्रहण कर कठिन तपस्या को और मृत्यु के पश्चात् अनुत्तर विमान में उत्पन्न हुए। (श्लोक १३०-१३१)
इस जम्बूद्वीप के दक्षिण भरतार्द्ध में विन्ध्यपुर नामक समस्त वैभवों की आकर एक नगरी थी । वहाँ नरशार्दूल और विन्ध्य पर्वत की तरह शक्तिशाली विन्ध्यशक्ति नामक एक राजा राज्य करते थे। शत्रुओं को छिन्न-भिन्न करने में वे रूई के लिए हवा की तरह थे । राजा लोग क्रूर ग्रह की तरह उनके कोदण्ड और भुजदण्ड के भय से कम्पित रहते थे। उनकी भ्र भंगी और क्रूर दृष्टिमात्र से ही शत्रु भाग छटते जिससे लगता जैसे उन्होंने उन सबको उदरसात् कर डाला हो। स्व-जीवन की रक्षा के लिए वे शत्रुओं से पूजे भी जाते थे। वे उन्हें कर देते थे। अपने जीवन की रक्षा अर्थदान से भी कर लेना उचित है।
(श्लोक १३२-१३६) एक दिन वे सौधर्म सभा के इन्द्र की तरह अपनी राज-सभा में पात्र, मित्र, अमात्य आदि से परिवृत होकर बैठे थे। उसी समय एक गुप्तचर आया। द्वार-रक्षक उसे भीतर ले आया। वह राजा को प्रणाम कर आसन पर बैठकर धीरे-धीरे कहने लगा
(श्लोक १३७-१३८)