Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charitra Part 3
Author(s): Ganesh Lalwani, Rajkumari Bengani
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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महाआरम्भ और महापरिग्रहयुक्त, सिंह-से निर्भीक, देवताओंसे प्रमादी इच्छानुसार भोग भोगकर वासुदेव द्विपृष्ठ आयुष्य पूर्ण होने पर षष्ठ नरक तमःप्रभा में उत्पन्न हए। वे ७५ हजार वर्षों तक कुमारावस्था में, ७५ हजार वर्षों तक माण्डलिक रूप में, १ सौ वर्ष तक दिग्विजय में और ७२ लाख ४९ हजार ९ सौ वर्षों तक वासुदेव रूप में रहे । वासुदेव की मृत्यु के पश्चात् बलदेव विजय अपना ७५ लाख वर्षों का आयुष्य पूर्ण कर भाई के प्रेम से अभिभूत बने किसी प्रकार अकेले जीवन धारण किए रहे । भगवान् वासुपूज्य का उपदेश स्मरण कर भाई की मृत्यु से विरक्त होकर उन्होंने आचार्य विजयसूरि से दीक्षा लेकर यथा समय कर्म क्षय कर मोक्ष प्राप्त किया।
(श्लोक ३६४-३६९) द्वितीय सर्ग समाप्त
तृतीय सर्ग विमलनाथ स्वामी जो कि कर्म के अभाव के कारण निर्मल गङ्गा के प्रवाह रूप हैं, धर्म-देशना के लिए जो हिमवान तुल्य हैं, मैं उन्हें प्रणाम करता हं। तीर्थस्थलों के पवित्र वारि की तरह जो त्रिलोक को पवित्र कर सकते हैं ऐसे तेरहवें तीर्थङ्कर के जीवनचरित का अब मैं वर्णन करूंगा।
(श्लोक १-२) धातकी खण्ड द्वीप के पूर्व विदेह के भरत नामक विजय में, नगरियों के मध्य रत्नरूपा महापुरी नामक एक नगरी थी। पद्मा के निलय रूप पद्मसेन नामक एक राजा वहां राज्य करते थे। जो स्वगुणों के कारण समुद्र की तरह सहजलभ्य ; किन्तु दुरतिक्रमणीय थे। वीर एवं वीरों में अग्रणी उन राजा ने अपने आदेश को जैसे समग्र देश में लागू कर रखा था उसी प्रकार जिनादेश को उन्होंने अपने हृदय में अनवच्छिन्न रूप में धारण कर रखा था। यद्यपि वे संसार में हीनगृह निवासी की तरह रहते थे फिर भी सांसारिक विषयों से विरक्त थे। पथिक जैसे क्लान्त होने पर वृक्ष के निकट जाता है उसी प्रकार संसार से विरक्त होकर वे सर्वगुप्त नामक आचार्य के निकट गए। उनसे दीक्षा लेकर पुत्रहीन जैसे पुत्र पाने पर, धनहीन जैसे धन पाने पर उनकी रक्षा करता है उसी प्रकार