Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charitra Part 3
Author(s): Ganesh Lalwani, Rajkumari Bengani
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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भी विनय कैसे रह सकता है ? बाहर से बगुला धार्मिक और अन्तर में दम्भ एवं कामनाओं से भरे मिथ्या आश्रयी संन्यासियों में सरलता नहीं रह सकती । पुत्र, कलत्र, गृह आदि के साथ रहने वाले ब्राह्मणों निर्लोभता कैसे आ सकती है ? ( श्लोक ३१९-३३०)
'राग, द्वेष, माया विवर्जित और सर्वज्ञ प्रतिवेदित धर्म ही कल्याणकारी और निर्दोष है । राग-द्वेष और माया के लिए ही लोग झूठ बोलते हैं । इसके अभाव में अर्हत् वाणी में मिथ्या आ ही नहीं सकती । जिसका चित्त राग-द्वेषादि द्वारा कलुषित है उसके मुख से सत्य वचन प्रकट नहीं हो सकते । जो घी से यज्ञ हवनादि किया करते हैं, बावड़ी, कुआँ, सरोवर, नदी आदि के निर्माण करने से पुण्य होता है । कहते हैं, पशु हत्या कर इहलोक और परलोक के सुखों की आशा करते हैं, ब्राह्मण भोज करा कर परलोकगत आत्मा को तृप्त कर रहे हैं कहते हैं, पर स्त्री का संग कर घृत योनि दान से परिशुद्ध होना सोचते हैं, पाँच प्रकार की आपत्ति (नष्ट, मृत, प्रव्रजित, क्लीव व पतित ) उपस्थित होने पर स्त्रियों का पुनर्विवाह करते है, स्त्री में यदि पुत्र उत्पन्न करने की क्षमता हो तो पुत्राभाव से उसे क्षेत्रज पुत्र उत्पन्न करवाते हैं, दूषित स्त्री रजस्राव से शुद्ध हो जाती है ऐसा कहते हैं, वैभव के लिए सोम यज्ञ में अज वध कर उसका पुरुषाङ्ग भक्षण करते हैं, सौत्रामणि यज्ञ में मदिरा पानकर कल्याण की कामना करते हैं, अखाद्य भक्षण कर गो-स्पर्श से पवित्र बनते हैं, जल आदि से स्नान मात्र करके ही परिशुद्ध हो जाते हैं, वट, पीपल, आँवला आदि वृक्षों का पूजन करते हैं, अग्नि में निक्षिप्त हव्य से देवताओं का तृप्त होना मानते हैं, जमीन पर दुग्ध दोहन करने से अरिष्ट शान्ति होना सोचते हैं, स्त्रीभाव से देवों की उपासना करते है, दीर्घ जटा, त्रिपुण्ड्र, भष्मलेपन और कौपिन धारण में धर्म मानते हैं, जौ, आकन्द, धतूरा मालूर आदि फूलों से देवताओं की पूजा करते हैं, जो बार-बार नितम्बों पर आघात कर गीत-नृत्य करते हैं और मुख - निःसृत शब्द से वाद्य यन्त्रों की ध्वनि को मन्द कर देते हैं, देव-मुनि और मनुष्यों को जो अपशब्द से सम्बोधित करते हैं, व्रत भङ्ग कर जो देव -दासियों का दासत्व करते हैं, जो अनन्तकायिक फल- मूल और कन्द भक्षण करते हैं, स्त्री पुत्र सहित तपोवन में वास करते हैं, जो भक्ष्याभक्ष्य, पेयापेय और गम्यागम्य