Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charitra Part 3
Author(s): Ganesh Lalwani, Rajkumari Bengani
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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उसने जो अपराध किया है उसके दण्ड की याचना कर रहा है । उन्होंने सूर्य से उज्ज्वल और भयंकर उस चक्र को हाथ में ले लिया और अश्वग्रीव को बोले- 'पहाड़ के सामने हस्ती की तरह गरजते हुए तुमने जिस चक्र को मुझ पर निक्षेप किया उसकी शक्ति तो तुमने अभी देख ली । जाओ, जाओ मार्जार की तरह व्यवहार करने वाले, तुम्हारी हत्या कौन करे ? ' (श्लोक ७३६-७४३) यह सुनकर अश्वग्रीव की देह क्रोध से काँपने लगी । वह ओष्ठ दंशन करता हुआ बोला - 'अबूझ बालक, उस चक्र को पाकर तुम मदमस्त हो उठे हो । फिर उसे भी मुझसे ही पाया है। पंगु जिस प्रकार पेड़ से झड़े फल को पाकर उन्मत्त हो उठता है वैसे ही तू हो गया है। फेंक वह चक्र मेरे ऊपर और देख मेरी शक्ति । मैं मुष्ठि प्रहार से उसे चूर्ण विचूर्ण कर दूँगा ।' ( श्लोक ७४४ - ७४६ )
यह सुनकर अक्षीण शक्ति वाले त्रिपृष्ठकुमार ने क्रुद्ध होकर चक्र को आकाश में घुमाकर अश्वग्रीव पर फेंका। उस चक्र ने कदली वृक्ष की तरह अश्वग्रीव के कण्ठ को छिन्न कर दिया । कारण, प्रतिचक्री स्वयं चक्र द्वारा निहत होते हैं । खेचरगण आनन्दित होकर त्रिपृष्ठकुमार पर पुष्प वृष्टि कर जय-जयकार करने लगे । आकाश को भी क्रन्दित कर दे ऐसे पराजित अश्वग्रीव के सैनिक क्रन्दन करने लगे । उनके नेत्रों से प्रवाहित जल से ऐसा लगा मानो वे अश्वग्रीव को अन्तिम संस्कार के लिए स्नान करवा रहे हैं । मृत्यु के बाद अश्वग्रीव तैंतीस सागरोपम की आयु लिए सप्तम नरक में उत्पन्न हुआ । ( श्लोक ७४७-७५१) उसी समय मुख्य देवगण आकाश में स्थिर होकर बोले- 'हे राजन्यगण, अब आप अपना मान परित्याग करिए । अश्वग्रीव के प्रति अब तक जो आपका आनुगत्य था उसे परित्याग कर त्रिपृष्ठकुमार की शरण लीजिए। ये ही योग्य शरण-स्थल हैं । इस काल के भरत क्षेत्र के ये ही प्रथम वासुदेव हैं । ( श्लोक ७५२-७५५) यह देववाणी सुनकर अश्वग्रीव के पक्ष के समस्त राजा वासुदेव के निकट आए और करबद्ध होकर बोले- 'अज्ञान और परतन्त्रतावश इतने दिनों तक हमने जो अपराध किया है उसे आप क्षमा करें । हे शरण्य, आज से भृत्य की तरह हम आपके आदेश का पालन करेंगे । हमें आदेश दीजिए ।' ( श्लोक ७५६-७५८)