Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charitra Part 3
Author(s): Ganesh Lalwani, Rajkumari Bengani
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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जिन, मैं न सांसारिक सुख चाहता हूं ना मुक्ति, मैं तो केवल आपके चरण-कमलों पर भ्रमर की तरह निवास करना चाहता हूं। हे त्रिलोकनाथ, विविध भाव से आपके चरण ही मानो मेरे लिए शरण है। आपकी सेवा से क्या प्राप्त नहीं होता ?' (श्लोक ८१८-८२५)
___ इन्द्र, त्रिपृष्ठ और अचल इस प्रकार स्तुति कर जब निवृत्त हुए तो भगवान् श्रेयांसनाथ ने मुक्ति का कारण रूप यह देशना दी :
(श्लोक ८२६) 'यह असीम संसार समुद्र स्वयंभूरमण समुद्र की तरह विशाल है। कर्मरूप तरंग के कारण मनुष्य कभी ऊर्ध्व में उत्क्षिप्त, कभी निम्न में निक्षिप्त होते हैं। हवा जिस प्रकार पसीने को सुखा देती है, औषध जैसे गन्ध को विनष्ट करती है उसी प्रकार अष्टविध कर्म निर्जरा द्वारा शीघ्र विनष्ट होते हैं। निर्जरा दो प्रकार की है : स्वेच्छाकृत या जो स्वयं होती है। कारण, जो संसार बन्ध का बीज था वह तो यहां क्षय हो ही जाता है। जो इन्द्रिय दमन करते हैं उनके लिए वह स्वेच्छाकृत है, अन्य के लिए वह स्वतः होती है। कारण, कर्म भी फल की तरह बाहरी निमित्त से या स्वतः पक जाता है । जैसे स्वर्ण खादयुक्त होने पर भी अग्नि में तपाने पर शुद्ध हो जाता है उसी प्रकार तपस्या की अग्नि में दग्ध होकर आत्मा पवित्र हो जाती है।
(श्लोक ८२७-८३१) ____ 'अनशन, ऊनोदरी, वत्ति संक्षेप, रस त्याग, कायक्लेश और संलीनता बाह्य तप है। प्रायश्चित, विनय, वैयावत्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यान आभ्यंतरिक तप है। स्वयं संयमित पुरुष क्षय करने में दुष्कर कर्म को भी बाह्य और आभ्यंतरित तप से शीघ्र दग्ध कर देता है। सरोवर में जल आगमन का पथ यदि बन्द कर दिया जाए तब वह जिस प्रकार नए जल द्वारा पूर्ण नहीं होता है उसी प्रकार कर्म का बन्धन नहीं होता। उस सरोवर में जल पूर्व से भरा हुआ था वह सूर्य-किरणों से बार-बार दग्ध होने पर जैसे सूख जाता है उसी प्रकार पूर्व संचित मनुष्य के कर्म भी तपस्या की अग्नि में बार-बार दग्ध करने पर शीघ्र ही विनष्ट हो जाते हैं।
(श्लोक ८३२ ८३८) 'कर्म-विनाश के लिए बाह्य तप की अपेक्षा आभ्यंतर तप ही श्रेष्ठ है और आभ्यंतर तप में भी, मुनियों के कथनानुसार ध्यान