Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charitra Part 3
Author(s): Ganesh Lalwani, Rajkumari Bengani
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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१५०] सिंहासन पर रखी। साधुगण भी पूर्वद्वार से प्रवेश कर यथा स्थान पर जा बैठे । वैमानिक देवियाँ व साध्वियाँ खड़ी रहीं। दक्षिण द्वार से प्रवेश कर तीर्थपति को नमस्कार कर भवनपति, ज्योतिष्क
और व्यंतर रमणियाँ नैऋत्य कोण में जाकर खड़ी हो गईं। पश्चिम द्वार से प्रवेश कर अर्हत् को नमस्कार कर भवनपति ज्योतिष्क और व्यंतर देव वायुकोण में जाकर खड़े हो गए। उत्तर द्वार से प्रवेश कर भगवान् को नमस्कार कर वैमानिक देवता, मानव और मानवियाँ ईशान कोण में जाकर खड़ी हो गईं। इस प्रकार तृतीय प्राकार के मध्य चतुर्विध संघ, मध्य प्राकार में पशु और निम्न प्राकार में वाहनादि अवस्थित हुए।
(श्लोक ८०७-८११) संवादवाहकों ने अर्द्धचक्री त्रिपृष्ठ वासुदेव से निवेदन किया कि प्रभु के समवसरण की रचना हुई है। यह सुनते ही वासुदेव सिंहासन से उठे। पादुका परित्याग कर जिस दिशा में प्रभु अवस्थित थे उधर मुह कर भगवान् की वन्दना की। तदुपरान्त सिंहासन पर बैठकर उस शुभ-संवादवाहक को तेरह कोटि रौप्य मुद्राएँ दान में दी और बलराम अचल को साथ लेकर त्रिपृष्ठकुमार सकल जीवों के शरणस्थल प्रभु के समवसरण में पहुंचे। उत्तर द्वार से प्रवेश कर प्रभ की यथोचित भाव से वन्दना की। तत्पश्चात् वे इन्द्र के पीछे जाकर बैठ गए। प्रभु को पुनः वन्दन कर इन्द्र, त्रिपृष्ठ वासुदेव और बलराम ने भक्ति भरे हृदय से यह स्तुति की :
(श्लोक ८१२-८१७) ___हे परमेश्वर ! सबको आनन्दकारी और मुक्ति के कारण रूप आपको मैं मूक्ति के लिए वन्दना करता हूं। आपके दर्शन मात्र से जबकि मनुष्य सब कुछ भूलकर अध्यात्म के प्रति भक्तिमान होता है तब आपकी देशना जो सुनता है उसका तो कहना ही क्या है ! मेरे लिए तो आप क्षीर-समुद्र तुल्य एवं कल्पवृक्ष रूप में वद्धित व संसार रूपी मरुभूमि पर सजल मेघ रूप में उदित हुए हैं । हे ग्यारहवें तीर्थङ्कर, हे केवली श्रेष्ठ, क्रूर कर्म द्वारा आक्रान्त मनुष्यों के आप ही एकमात्र रक्षक हैं । जल से जैसे स्फटिक पवित्र होता है उसी प्रकार इक्ष्वाकु वंश जो कि स्वभावतः ही पवित्र है आपके द्वारा और पवित्र हुआ है । हे भगवन्, आपके चरण त्रिलोक के समस्त दुःखों को दूर करने में अतुल छायामय सिद्ध हुए हैं। हे