Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charitra Part 3
Author(s): Ganesh Lalwani, Rajkumari Bengani
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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हुए एक दिन श्रेष्ठनगरी पोतनपुर पहुंचे। वहाँ समोसरण के लिए वायुकुमार देवों ने एक योजना भूमि परिष्कृत की और मेघकुमार देवों ने उसे स्वर्ण और रत्न शिला से मंडित किया और घुटने तक पंचवर्णीय पुष्पों की वर्षा की । उन्होंने चारों दिशाओं में दिक्कुमारों के भृकुटि की तरह चार अलंकृत तोरण निर्मित किए और मध्य में एक रत्न वेदी बनाई । इसके नीचे भवनपति देवों ने धरणी के शिरमाल्य की तरह स्वर्ण-शिखर युक्त रौप्य प्राकार का निर्माण करवाया | ज्योतिष्क देवों ने मानो उनकी ज्योति द्वारा ही निर्मित हो ऐसे रत्नशिखर युक्त स्वर्ण की द्वितीय प्राकार निर्मित करवाई । विमानपति देवों ने मणि-शिखर युक्त रत्नशीला के तृतीय प्राकार का निर्माण किया । प्रत्येक प्राकार में सुसज्जित चार द्वार थे और मध्य प्राकार के बीच ईशान कोण में एक वेदी थी । प्राकार की मध्यभूमि के बीच व्यंतर देवों ने ६९ धनुष दीर्घ एक चैत्य वृक्ष का निर्माण किया । इसके तल में रत्नमय वेदी पर उन्होंने एक मंच निर्मित किया और उस पर पादपीठ सह पूर्वमुखी एक रत्न - सिंहासन स्थापित किया और जो कुछ वहाँ करणीय था व्यंतर देवों ने वह सब निष्पन्न किया । भक्ति के कारण वे भृत्यों से भी अधिक अप्रमादी थे । ( श्लोक ७८८-७९८)
तदुपरान्त भगवान श्रेयांसनाथ जिनके मस्तक पर त्रिछत्र था, यक्ष जिनके दोनों ओर खड़े होकर चामर वींज रहे थे, जिनके अग्र - भाग में इन्द्रध्वज चल रहा था, चारणों की जयध्वनि सी जिनकी साम्यवाणी दुंदुभिघोष में घोषित हो रही थी, सूर्यालोक से दीप्त पूर्व गिरि से जिसकी प्रभा विस्तारित हो रही थी ऐसे प्रभु कोटिकोटि देव, मानव और असुरों द्वारा सेवित होकर अपने चरणकमलों को देवों द्वारा रक्षित नौ स्वर्ण-कमलों पर रखते हुए पूर्वद्वार से उस समवसरण में जिसके सम्मुख देदीप्यमान धर्मचक्र रखा था प्रवेश किया । तदुपरान्त त्रिलोकपति ने उस चैत्य वृक्ष की तीन प्रदक्षिणा दी । उस चैत्य वृक्ष ने भी मानो भँवरों के गु ंजन द्वारा उनका स्वागत किया । तदुपरान्त भगवान ने पूर्वाभिमुख होकर 'नमो तित्थाय' कहा । तत्पश्चात् पादपीठ पर पाँव रखकर उसी रत्नसिंहासन पर आरोहण किया । ( श्लोक ७९९-८०६ ) व्यंतर देवों ने अन्य तीन ओर प्रभु की अनुकृति लाकर रत्न