Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charitra Part 3
Author(s): Ganesh Lalwani, Rajkumari Bengani
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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१५२] ही छत्र रूप है। जो मुनिगण ध्यानरत हैं वे दीर्घकाल के संचित कर्म को भी जो कि अत्यन्त गहन है मुहर्त मात्र में विनष्ट कर देते हैं। त्रिविध दोषों के कारण रोग का प्रकोप कठिन होने पर भी जैसे उपवास से वह साम्य प्राप्त होता है उसी प्रकार तपस्या से पूर्व संचित कर्म भी झर जाते हैं । तीव्र वायुवेग से मेघपुञ्ज जैसे छिन्नभिन्न हो जाते हैं उसी प्रकार तपस्या से कर्म विनष्ट हो जाते हैं। कर्म का निरोध और कर्म का क्षय यदि सर्वदा फलदायी है फिर भी जब वह चरम रूप में आता है तब वह मोक्ष रूपी फल प्रदान करता है। दोनों प्रकार की तपस्या से कर्म क्षय कर शुद्ध-सत्त्व व्यक्ति मोक्ष प्राप्त कर कर्म से सर्वथा मुक्त हो जाता है ।' (श्लोक ८३९-८४४)
भगवान् की देशना से बहुत से व्यक्तियों ने मुनिधर्म ग्रहण किया। अचल और त्रिपृष्ठकुमार ने सम्यक्त्व ग्रहण किया। दिन का प्रथम याम व्यतीत होते ही प्रभु-देशना से विरत हुए। तब त्रिपृष्ठकुमार के अनुचर चार प्रस्थ बलि ले आए। उस बलि को प्रभु के सम्मुख आकाश में उत्क्षिप्त किया गया जिसका आधा तो देवों ने धरती पर पड़ने से पूर्व ही ग्रहण कर लिया। जो आधा भूमि पर गिरा उसका आधा राजन्य लोगों ने और अवशेष आधा अन्य लोगों ने ग्रहण किया। तदुपरान्त प्रभु उत्तर द्वार से वहिर्गत होकर मध्य प्राकार की रत्नवेदी पर जाकर बैठ गए। तब छियत्तर गणधरों के प्रमुख गोशुभ गणधर ने प्रभु के पाद-पीठ पर बैठकर देशना दी। उन्होंने दिन के द्वितीय प्रहर में अपनी देशना समाप्त की। तत्पश्चात् इन्द्र, अचल, त्रिपृष्ठ आदि सभी अपने-अपने निवास स्थान पर लौट गए। प्रभु भी वहाँ से प्रव्रजन कर द्वितीय सूर्य की तरह ज्ञान का आलोक विकीर्ण करते हुए पृथ्वी पर भ्रमण करने लगे।
(श्लोक ८४५-८५१) केवलज्ञान प्राप्त करने के पश्चात् प्रभु दो मास कम इक्कीस लक्ष पूर्व तक इस पृथ्वी पर विचरण करते रहे। उनके संघ में चौरासी हजार साधु, एक लाख तीन हजार साध्वियाँ, तेरह सौ चौदह पूर्वधारी, छह हजार अवधिज्ञानी, छह हजार मनःपर्यव ज्ञानी, छह हजार पाँच सौ केवलज्ञानी, ग्यारह हजार वैक्रिय लब्धि सम्पन्न, पाँच हजार वादी, दो लाख उन्यासी हजार श्रावक और चार लाख अड़तालीस हजार श्राविकाएँ थीं।
(श्लोक ८५२.८५६)