Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charitra Part 3
Author(s): Ganesh Lalwani, Rajkumari Bengani
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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द्वन्द्व-युद्ध के लिए आह्वान करता है उसी प्रकार उसने श्रेष्ठ सिंह को युद्ध के लिए ललकारा । वासुदेव का मन्द्र स्वर सिंह ने कान खड़े कर सुना, आश्चर्यचकित हुआ और सोचने लगा - यह निश्चय ही साहसी वीर है । तब सिंह गुफा से बाहर निकला । उसके कान मालभूमि में प्रोथित स्तम्भ की भांति, नेत्र भयंकर लाल मशाल जैसे, मुख दृढ़, जबड़े और दाँत अस्त्रागार की तरह थे । उसकी जीभ पाताल से निकल आए तक्षक नाग सी, मुख के अद्धभाग के दाँत यम मन्दिर की पताकाओं से, केशर भीतरी क्रोधाग्नि-सी, नाखून देह से प्राण निकालने के अंकुश की तरह थे । उसकी पूँछ क्षुधार्त्त सर्प-सी, बाया हुआ मुँह गर्जन के लिए भयंकर था मानो निष्ठुरता का मूर्त प्रतीक हो ऐसा प्रतिभासित हो रहा था । फिर उसने अपनी लम्बी पूँछ से इन्द्र जिस प्रकार पर्वत पर वज्राघात करते हैं उसी प्रकार जमीन पर फटकार मारी । पूँछ के उस ‘फटकार' शब्द से जल-जन्तु जैसे भेरी घोष सुनकर जल की गहराई में चले जाते हैं वैसे ही निकटस्थ प्राणी भय से दूर भाग गए । ( श्लोक ३७७-३८५)
यह अवसर मुझे दीजिए, मेरे रहते आप क्यों युद्ध करेंगे कहते हुए त्रिपृष्ठकुमार अचलकुमार को निरस्त कर रथ से उतर पड़े और बोले - 'पदातिक के साथ मैं रथ में बैठकर युद्ध करू यह सामरिक नियमों के अनुकूल नहीं है । फिर निरस्त्र के साथ मैं सशस्त्र युद्ध करू ँ यह भी उचित नहीं है ।' ऐसा कहकर अस्त्र दूर फेंककर पुरन्दर से भी बलशाली त्रिपृष्ठ सिंह का आह्वान कर बोले - 'वनराज, मेरे पास आ । मैं तेरे युद्ध की पिपासा मिटाता हूं ।' यह सुनकर क्रोधान्वित होकर सिंह ने भी मानो प्रत्युत्तर में प्रतिध्वनि कर उसी की पुनरावृत्ति की। सिंह ने भी सोचा - यह छोकरा अविवेकी की तरह काम कर रहा है । साथ में सेना लाया नहीं, रथ से उतर गया है और अस्त्र-शस्त्र दूर फेंक दिए हैं। ऊपर से मुझे युद्ध के लिए ललकार रहा है तो मण्डूक की तरह सर्प के सम्मुख आस्फालन करने वाला यह अपने दुस्साहस का फल भोगे । ( श्लोक ३८६-३९३ ) ऐसा सोचकर सिंह अपनी पूँछ खड़ी कर आकाशगामी विद्याधर के रथ से पतित सिंह की तरह त्रिपृष्ठकुमार पर जा