Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charitra Part 3
Author(s): Ganesh Lalwani, Rajkumari Bengani
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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विद्याधरों के सम्मत होने पर अचल और त्रिपृष्ठ कुमार अपने नगर को लौट गए। दोनों भाइयों ने वहाँ जाकर पिता के चरणों में प्रणाम किया। बलभद्र ने समस्त कथा पिता को सुनाई। राजा को लगा जैसे उनके पुत्र का पुनर्जन्म हुआ है। साथ ही उन्होंने अपनी प्रतिज्ञा पूरी की इससे हर्ष भी हआ। विद्याधरों ने जब अश्वग्रीव को सारी वात बताई तो उस पर मानो वज्रपात-सा हो गया।
(श्लोक ४११-४१४) वैताढय पर्वत की दक्षिण श्रेणी के अलंकार तुल्य रथनुपुर चक्रवाल नामक एक नगर था। वहाँ ज्वलनजटी नामक एक विद्याधर राजा राज्य करते थे। उनका प्रताप था उज्ज्वल अग्निशिखा की तरह अतुलनीय । उनकी प्रधान महिषी का नाम था वायूवेगा। वह प्रीति की निलय थी और हँस की तरह मन्थरगामिनी। राजा को इस रानी से एक पुत्र उत्पन्न हुआ। स्वप्न में सूर्य देखने के कारण पुत्र का नाम रखा गया अर्ककीत्ति । यथा समय उनके एक कन्या हुई। स्वप्न में माता ने स्वप्रभा से आकाश आवत करने वाली चन्द्रकला देखी। अतः कन्या का नाम रखा स्वयंप्रभा । वयः प्राप्त होने पर राजा ने हिम पर्वत की तरह दीर्घबाह और गंगा की तरह ख्यातिसम्पन्न अर्ककीत्ति को युवराज पद पर अभिषिक्त किया।
(श्लोक ४१५-४२०) उपवन में बसन्त के आविर्भाव की तरह स्वयंप्रभा भी कालक्रम से यौवन को प्राप्त हुई। अपने चन्द्रानन के कारण वह पूर्णचंद्रसी लगने लगी और कृष्णकेश संभार के कारण मूतिमती अमावस्या। उसके आकर्ण विस्तृत नेत्र उसके कर्णाभरण से लगते थे और कर्ण उसके विस्तृत नयन रूपी सरिता के दो तट । उसके आरक्त करतल चरण और ओष्ठों से वह पुष्पभार समन्विता लता-सी लगती थी। उसके पीन पयोधर श्री के क्रीड़ा शैल की तरह सुन्दर दीखते थे। उसकी नाभि सौन्दर्य रूपी सरिता के आवर्त की तरह और उसके गुरु नितम्ब अन्तर्वीप से थे। देव, असुर और विद्याधर अंगनाओं में उसके समतुल्य कोई नहीं थी। वह देह-सौन्दर्य का मानो आगार थी।
(श्लोक ४२१-४२९) एक दिन अभिनन्दन और जगनन्दन नामक दो मुनि आकाश से उस नगर में आए। परिपूर्ण वैभव से मानो श्री देवी ने रूप