Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charitra Part 3
Author(s): Ganesh Lalwani, Rajkumari Bengani
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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अन्तक के पुत्रों की भाँति युद्ध करने लगे । जो नाटक अब अभिनीत होने वाला है उसके नन्दी रूप में त्रिपृष्ठकुमार ने पाञ्चजन्य शंख बजाकर आकाश गु ंजायमान कर दिया । प्रलयकालीन पुष्करावर्त्त मेघ से निकली वज्रध्वनि की तरह उस पाञ्चजन्य शंख के शब्द से अश्वग्रीव की सेना क्षुब्ध हो गई । वृक्ष के पत्र की तरह किसी के हाथ से अस्त्र खिसक कर गिर गया, कोई मानो पक्षाघात से ग्रस्त हो गया हो इस प्रकार स्वयं ही जमीन पर सो गया । भयभीत शृगाल की तरह कोई अदृश्य हो गया । किसी ने शशक की तरह भय से आँखें बन्द कर लीं । कोई उल्लू की तरह गिरि-कन्दरा में प्रवेश कर गया । किसी ने जल से निकाले कच्छप की तरह हाथपैर सिकोड़ लिए । समुद्र शुष्क हो जाने जैसी असम्भव अपनी सेना को हताश होते देखकर अश्वग्रीव उनसे बोला : ( श्लोक ६२१-६३३) 'हे विद्याधर सैनिको, एक सामान्य सी शंख-ध्वनि से वृष की गर्जन से भयभीत बने अरण्य के हिरण की तरह तुम लोग कहाँ जा रहे हो ? त्रिपृष्ठ और अचल में तुमने ऐसी कौन-सी शक्ति देखी कि त्रास-उत्पन्नकारी काक से जैसे गौ-वलीवर्द त्रासित हो जाते हैं उसी प्रकार तुम लोग भयभीत हो गए हो ? बहुत से युद्धों में जो गौरव तुम लोगों ने अर्जित किया था उसे धूल में मिला डाला । क्या तुम नहीं जानते एक बिन्दु काजल एक स्वच्छ सफेद वस्त्र की उज्ज्वलता नष्ट कर सकता है । लौट आओ । भाग्य दोष से ही लगता है तुम भयभीत हुए हो । बता सकते हो भूचर मनुष्य आकाशचारी तुम लोगों से किस प्रकार श्रेष्ठ है ? यदि युद्ध नहीं करना है तो खड़े होकर युद्ध देखो। मैं अश्वग्रीव युद्ध में किसी की भी सहायता की अपेक्षा नहीं करता ।' (श्लोक ६३४-६३८ ) अश्वग्रीव के इन वाक्यों को सुनकर लज्जा से सिर झुकाए विद्याधर सैनिक उसी प्रकार लौट आए जैसे पर्वत से आहत होकर समुद्र - तरंग लौट आती है । तब अश्वग्रीव क्रूर ग्रह की तरह शत्रु सैन्य का ग्रास करने के लिए उद्यत होकर स्व-रथ पर चढ़ा । मानो अस्त्र क्षेपणकारी मेघपुञ्ज हो इस प्रकार वह आकाश से त्रिपृष्ठ की सेना पर तीर, प्रस्तर, मुद्गर आदि निक्षेप करने लगा । अस्त्रशस्त्रों की वर्षा से त्रिपृष्ठ की सेना का मनोबल टूटने लगा । धरती पर खड़ा मनुष्य धीर और साहसी होने पर भी आकाश से होने वाले