Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charitra Part 3
Author(s): Ganesh Lalwani, Rajkumari Bengani
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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नेत्र हरिण-शिशु-से होने के कारण राजा ने उसका नाम रखा मृगावती। आश्रम-पालित मृग जैसे निर्बाध बढ़ता है उसी प्रकार एक गोद से दूसरी गोद में जाते हुए वह मृगनयना बड़ी होने लगी। उसे कन्धे पर लेकर जब धात्रियाँ आँगन में घमने निकलती तो वे रत्न-पुत्तलिका युक्त स्तम्भ-सी लगतीं। क्रमशः शैशव अतिक्रम कर वह यौवन को प्राप्त हुई। उसने ऐसा शारीरिक सौन्दर्य पाया मानो संजीवनी-सुधा पान कर मदन पुनर्जीवित हो गया हो। वक्र भूरेखाओं के नीचे उसका मुख चन्द्र के कर्णाभरण-सा और काली मणियों से युक्त नेत्र भ्रमर बैठे श्वेत पद्म-से प्रतीत होते । उसकी सुन्दर ग्रीवा ने पद्ममुख के नाल की शोभा धारण की। सीधी अँगुलियाँ युक्त हस्त की काम के तूणीर के साथ तुलना होती । उसका वक्ष देहरूपी लावण्य नदी के तट पर बैठे मानो दो चक्रवाक हों। उसकी कटि क्षीण थी मानो वक्ष देह का गुरु भार वहन कर वह क्षीण हो गई हो। उसकी नाभि मदन की क्रीड़ा वापी-सी गंभीर थी। उसके नितम्ब रत्नाचल पर्वत के गात्र की तरह विपूल और मसृण थे। उसकी जाँचें क्रमशः गोलाकृति होने से कदली स्तम्भ-सी शोभित होतीं। उसकी पगतलियाँ घटनों के नीचे की पिंडलियों सहित नालयुक्त कमल-सी दिखती थीं। यौवन के नवीन सौन्दर्य से सुशोभित ऐसे अंगों वाली वह विद्याधर कन्या-सी प्रतीत होती थी।
(श्लोक १८०-१९१) मृगावती का देह-सौन्दर्य जैसे-जैसे बढ़ने लगा वैसे-वैसे भद्रा के मन में उसके योग्य पति की चिन्ता बढ़ने लगी। जिस प्रकार मैं चिन्ता करती हं उसी प्रकार राजा भी चिन्ता करें, सोचकर रानी भद्रा ने मृगावती को राजा के पास भेजा। यह उनकी लड़की है भूलकर रिपुप्रतिशत्रु मन ही मन सोचने लगे - देह सौन्दर्य की पराकाष्ठा कंदर्प के शरतुल्य त्रिलोक सुन्दरी को परास्त करनेवाली यह कौन है ? स्वर्ग और मृत्यु का आधिपत्य प्राप्त करना सहज है। किन्तु ऐसी कन्या जिसने मेरे हृदय को जीत लिया है पाना कठिन है। मेरे पूर्व जन्म के सुकृत के फलस्वरूप देव, असुर और मानवेन्द्र की सुकृति से भी अधिक ऐसी कन्या मुझे मिली है।
(श्लोक १९२-१९९) ऐसा सोचकर राजा ने प्राणों से भी प्रिय उसे अपनी गोद में