Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charitra Part 3
Author(s): Ganesh Lalwani, Rajkumari Bengani
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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उत्पन्न हुए। उनके दाहिनी ओर के दोनों हाथों में बिजोरा और अक्षमाला थी। बाईं ओर के दोनों हाथों में नकुल और बी थी। वे शासन देव बनकर भगवान् के निकट अवस्थित हुए । इसी प्रकार वृषभवाहना, श्वेतवर्णा सुतारा यक्षिणी उत्पन्न हुई । उनके दाहिने दोनों हाथों में क्रमशः एक में अक्षमाला थी, दूसरा वरयमुद्रा में था। बायीं ओर के दोनों हाथों में क्रमशः कुम्भ और अंकुश था। वे भगवान् की सेवा में सर्वदा निरत रहकर उनकी शासन देवी बनीं। वे सर्वदा उनके पास रहतीं। अनुकम्पा के सागर प्रभु पृथ्वी पर मनुष्यों को प्रतिबोध देते हुए भ्रमण करते रहे ।
(श्लोक १३८-१४२) भगवान् के तीर्थ में वराहादि ८८ गणधर थे, २,००,००० साधु एवं १,२०,००० साध्वियां थीं, ८,४०० अवधिज्ञानी, १,५०० चौदह पूर्वधर, ७,५०० मनःपर्यव ज्ञानी, ७,५०० केवली, १३,३०० वैक्रिय लब्धि सम्पन्न, ६,००० वादी, २,२९,००० श्रावक और ४,७२,००० श्राविकाएँ थीं। २८ पूर्वाङ्ग और चार मास कम अर्द्धलक्ष पूर्व प्रभु केवली अवस्था में प्रव्रजन करते रहे ।
(श्लोक १४३-१४७) आयुष्य पूर्ण होने का समय जानकर प्रभु एक हजार मुनियों सहित सम्मेत-शिखर पर गए। वहां अनशन में एक मास व्यतीत किया। कार्तिक कृष्ण नवमी को चन्द्र जब मूल नक्षत्र में था प्रभ ने शैलेशीकरण ध्यान में एक हजार मुनियों सहित अक्षय सिद्ध लोक में गमन किया। प्रभु अर्द्धलक्ष पूर्व युवराज रूप में रहे । अर्द्धलक्ष पूर्व और २८ पूर्वाङ्ग राजा रूप में रहे । अर्द्धलक्ष पूर्व कम २८ पूर्वाङ्ग व्रती रूप में रहे । भगवान् की सर्वायु २ लाख पूर्व की थी। श्री चन्द्रप्रभ स्वामी के निर्वाण के नौ करोड़ सागरोपम के पश्चात् सुविधिनाथ स्वामी निर्वाण को प्राप्त हुए। (श्लोक १४८-१५२)
सुविधिनाथ स्वामी के निर्वाण के कुछ काल पश्चात् हुण्डा अवसर्पिणी काल के दोष से श्रमण धर्म का विच्छेद हो गया अर्थात् एक भी साधु नहीं रहा। धर्म क्या है जो नहीं जानते थे वे पथभ्रान्त पथिक जैसे अन्य पथिक को पथ पूछता है उसी प्रकार वृद्ध श्रावकों को धर्मकथा जिज्ञासा करने लगे । वृद्ध श्रावक अपने-अपने मत से उन्हें धर्म बताने लगे व लोग उनको अर्थादि देकर पूजने