Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charitra Part 3
Author(s): Ganesh Lalwani, Rajkumari Bengani
Publisher: Prakrit Bharti Academy
View full book text
________________
[२७
व्याघ्रादिपूर्ण अरण्य में विचरण कर भयभीत नहीं होते। शीतकाल की रात्रि की भयानक सर्दी में भी प्रतिमा धारण कर आलान स्तम्भ की तरह बाहर ही अवस्थित रहते । सूर्य किरणों से उत्तप्त ग्रीष्मकाल में धूप में तपस्या करने पर भी वे सूखते नहीं बल्कि अग्नि द्वारा परिशुद्ध स्वर्ण-से उज्ज्वल हो उठते । वर्षा ऋतु में दोनों नेत्र निस्पंद कर वक्ष तले प्रतिमा धारण कर अवस्थित रहते । लोभी जिस प्रकार सम्पत्ति का संचय करता है उसी प्रकार उन्होंने सभी प्रकार के उपवास, एकावली, रत्नावली आदि बहुत बार पालन किए। बीस स्थानक के कई स्थानकों की उपासना कर उन्होंने तीर्थंकर गोत्र-कर्म उपार्जन किया। इस प्रकार दीर्घकाल तक चारित्र-पालन कर मृत्यु के पश्चात् वे विजय-विमान में ऋद्धि सम्पन्न देव बने ।
(श्लोक १०-२०) जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में पुरन्दर की नगरी-सी अयोध्या नामक एक नगरी थी। उस नगरी में प्रत्येक गृह के रत्नजड़ित स्तम्भ में प्रतिबिम्बित होकर चन्द्र ने शाश्वत सुन्दर दर्पण का रूप प्राप्त किया था। वहां के प्रतिगृह के वृक्ष कल्पवृक्ष से लगते; कारण, वहां के मयूर खेल-खेल में एकावली हार खींच-खींच कर बिखेरते और उसमें से मणियां झर पड़तीं । पंक्तिबद्ध देवालयों से निकलती चन्द्रमणियों की आलोक धारा के कारण मन्दिर सरितायुक्त पर्वत-से लगते। प्रतिगह की क्रीड़ावापियों पर क्रीड़ारत पुरुष और स्त्रियां क्षीर-सागर में क्रीड़ारत अप्सराओं को भी लज्जित करती थीं। गले तक जल में डूबी सुन्दर रमणियों के मुख-कमल से वे वापियां स्वर्ण-कमलों की माला द्वारा सर्वदा भूषित-सी लगतीं। नगर के बाहर की भूमि सघन और विस्तृत उद्यान से नवमेघाच्छादित पर्वत की अधित्यका-सी लगती, परिखायुक्त प्राकार, गंगा परिवत अष्टापद से शोभित थे। हर गृह में स्वर्ग के कल्पवृक्ष-से देने को उन्मुख व्यक्ति सहज लभ्य थे; किन्तु याचक दुर्लभ थे अर्थात् पाए नहीं जाते थे।
__(श्लोक २१-३०) इक्ष्वाकु वंश रूप क्षीर-समुद्र के चन्द्रतुल्य, जिन्हें शत्रु की श्री देवियों ने भी स्व-पति रूप में चुन लिया है ऐसे संवर अयोध्या नगरी के राजा थे। करुणामय व्यक्ति की तलवार जिस प्रकार कोष से बाहर नहीं निकलती उसी प्रकार समग्र धरणी के एकछत्र राजा का