Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charitra Part 3
Author(s): Ganesh Lalwani, Rajkumari Bengani
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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भगवान् चन्द्रप्रभ ने निर्वाण प्राप्त किया ।
( श्लोक १२०-१२२) इन्द्रादि देवों ने आकर भगवान् और मुनिवरों की यथावणित अन्त्येष्टि क्रिया सम्पन्न की और पुनः स्वर्ग को लौट गए ।
( श्लोक १२३ )
षष्ठ सर्ग समाप्त
सप्तम सर्ग
अमङ्गल नाशकारी, पवित्र, त्रिलोक द्वारा माला की भांति मस्तक पर धारण करने योग्य भगवान् पुष्पदन्त की वाणी जयवन्त हो । उनकी शक्ति से शक्तिमान् होकर मैं नवम तीर्थङ्कर की जीवनी विवृत करता हूं । ( श्लोक १-२ ) पुष्करार्द्ध द्वीप के पूर्व विदेह में पुष्कलावती विजय में पुण्डरकिनी नामक एक नगर था । महा हिम पर्वत पर जिस प्रकार हृद महापद्म है उसी प्रकार पुण्डरिकिनी नगर के राजा थे महापद्म । धर्म को तो उन्होंने जन्म से ही ग्रहण कर लिया था जो कि शैशव से यौवन तक शारीरिक सौन्दर्य की तरह ही वद्धित हो रहा था । ब्याज का व्यवसायी जिस प्रकार प्रतिदिन ब्याज न मिलने पर दुःखी हो जाता है उसी प्रकार यदि एक मुहूर्त्त भी संयमहीन व्यतीत होता तो वे दुःखी हो जाते। रास्ते में नदी पार करते समय जिस प्रकार पथिक जलपान करता है उसी प्रकार वे धर्मकृत्य सम्पन्न कर राज- कार्य परिचालन करते । विज्ञ अप्रमादी वे अपने वंश की तरह कलङ्कहीन श्रावक जीवन व्यतीत करते थे । यद्यपि वे सदा संतोषी थे; किन्तु धर्म में संतोषी नहीं थे । अल्प परिमाण धर्म सम्पन्न अन्य को भी वे अपने से अधिक धार्मिक समझते थे । भवसागर पार करने के लिए उन्होंने जिस प्रकार रण-समुद्र उत्तीर्ण करने के लिए दिव्य अस्त्र ग्रहण करने पड़ते हैं उसी प्रकार जगनन्द मुनि से श्रामण्य दीक्षा ग्रहण कर ली । श्रावक धर्म में प्रवीण संलेखना ग्रहणकारी जिस प्रकार मृत्यु पर्यन्त उपवास का संरक्षण करता है उसी प्रकार वे श्रमण व्रतों का निष्ठापूर्वक पालन करते थे । एकावली आदि कठिन तपश्चर्या और अर्हत् भक्ति से उन्होंने तीर्थङ्कर गोत्र कर्म उपार्जन किया । इस भांति धर्म कार्य में निरत