Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charitra Part 3
Author(s): Ganesh Lalwani, Rajkumari Bengani
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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मूलारू वृक्ष के नीचे प्रतिमा धारण की। कार्तिक शुक्ला तृतीया को चन्द्र जब मूल नक्षत्र में था प्रभु ने अपूर्वकरण द्वारा क्षपक श्रेणी में आरोहण कर केवलज्ञान प्राप्त किया। (श्लोक ६४-६५)
तदुपरान्त देव और असुरों द्वारा निर्मित समवसरण में प्रभु पूर्व द्वार से प्रविष्ट हुए। सर्व अतिशय सम्पन्न प्रभ बारह सौ धनुष दीर्घ चैत्यवक्ष की प्रदक्षिणा देकर तीर्थ को नमस्कार कर पूर्वाभिमुख होकर रत्न-सिंहासन पर विराज गए । अन्य तीन दिशाओं में देवों ने उनका बिम्ब प्रतिष्ठित किया। देव एवं अन्यों के यथास्थान बैठ जाने पर शक ने प्रभु की प्रशंसासूचक स्तुति की
___'यद्यपि आप रागमुक्त हैं फिर भी आपके पद और करतल आरक्त क्यों हैं ? यदि आपने वक्रता परित्याग की है तो आपके केश वक्र (घुघराले) क्यों हैं ? यदि आप संघ के संघपति हैं तब आपके हाथ में दण्ड क्यों नहीं हैं ? यदि आप वीतराग हैं तो सबके प्रति यह अनुकम्पा क्यों ? यदि आपने समस्त अलङ्कारों का परित्याग किया है तो आपका त्रिरत्न के प्रति झुकाव क्यों ? यदि आप सबके प्रति समभावी हैं तो मिथ्यात्वियों के शत्रु क्यों हैं ? यदि आप स्वभाव से ही सरल हैं तो छद्मस्थ क्यों ? यदि आप दयावान हैं तो राग का दमन क्यों ? यदि आप निर्भय हैं तो संसार-भीरु क्यों ? यदि आप सबके प्रति मध्यस्थ हैं तो सबके मंगलकारी कैसे ? यदि आप अदीप्त हैं तो आपके चारों ओर उज्ज्वल विभा क्यों ? यदि स्वभाव से ही शान्त हैं तो दीर्घकाल तक तप क्यों किया ? यदि आप क्रोध विमुख हैं तो कर्म के प्रति क्रोध क्यों ? हे भगवन, चार अनन्तगुणयुक्त महत्त्व से भी अधिक महीयान आपके स्वभाव को जानना असम्भव है । नमस्कार आपको।' (श्लोक ६६-७७)
इस प्रकार स्तुति कर इन्द्र के चुप हो जाने पर भगवान् सुविधि स्वामी ने अपना उपदेश दिया
__ 'सचमुच ही यह संसार अनन्त दु:खों का भण्डार है। सर्प जिस प्रकार विष की उत्पत्ति का कारण है उसी प्रकार आश्रव अनंत दुःखों का कारण है। मन वचन और काया द्वारा जीव जो क्रिया करता है जिसे योग कहा जाता है वह आत्मा में शुभाशुभ कर्म आकृष्ट कर लाता है (आश्रवसे) इसीलिए इसे आश्रव कहा गया है। मैत्री आदि शुभ भावना से शुभ कर्म का बन्ध होता है; किन्तु, विषय