Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charitra Part 3
Author(s): Ganesh Lalwani, Rajkumari Bengani
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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ऐश्वर्य उनके कोष से बाहर नहीं निकलता था। उन दीर्घबाहु महावीर्यवान राजा के द्वारा आकाश के एक चन्द्र की तरह यह पृथ्वी एकछत्र के रूप में धारण को हुई थी। उन्होंने पृथ्वी को धारण कर रखा था नहीं तो दिग्विजय के लिए निकली उनकी विपुल सैन्यवाहिनी के पदभार से पृथ्वी शतधा विदीर्ण हो जाती। जब वे दूरदूर देश से श्री को आकृष्ट कर लाते तब उनके कोमल होने पर भी उन्हें धर्म-शृखला में आबद्ध कर रखते थे। अन्य राजाओं के राजदण्ड हरण कर लेने पर भी वे गवित नहीं हुए। नदियों के जल को ग्रहण कर क्या समुद्र कभी गर्वित होता है ? सर्वदा शान्त निर्लोभी और निराकुल मुनि की तरह वे धन और सम्पदा के लिए नहीं, धर्म के लिए शासन करते थे। प्रजा की रक्षा के लिए ही वे शत्रुओं का शमन करते थे किसी द्वाष के वशीभूत होकर नहीं। प्रजा के लिए जो श्रेय है वह तुलादण्ड की तरह स्वयं में धारण करते थे।
(श्लोक ३१-३९) ___ उच्चकुलजाता धर्मभावापन्ना अन्तःपुर की अलंकारस्वरूपा सिद्धार्था नामक उनकी एक पत्नी थी। मन्थरगति के कारण मधुरभाषिणी वह रूपवती राजहंसिनी-सी लगती थी। उसकी सुन्दर आँखें, मुख, हाथ, पैर धर्म और सौन्दर्य की सरिता में कमल-वन से लगते थे। उसके कमल नेत्रों-का भीतरी भाग इन्द्रनील-सा, दांत मुक्ता-से, होठ प्रवाल-से, नख लोहितक-से, अंग-प्रत्यंग सवर्ण-से,
और देह रत्नों द्वारा निर्मित-सी लगती थी। वह नगरियों में विनीता, विद्या में रोहिणी, नदियों में मन्दाकिनी-सी व महीयसी महिलाओं में श्रेष्ठा थी। वह पति के प्रति अनुराग के वशवर्ती होने पर भी कभी कोप-प्रदर्शन नहीं करती, कारण साध्वी स्त्रियाँ धार्मिक व्रतों की तरह वैवाहिक प्रतिज्ञा-भंग को भी भय की दृष्टि से देखती हैं। उनके प्रति राजा का प्रेम भी नील की तरह छल-रहित था। बिना धर्म का लंघन किए अहंकार शून्य वे दम्पती सांसारिक सुखों का भोग करते थे।'
(श्लोक ४०-४८) ___ उधर महाबल के जीव ने विजय विमान के आनन्द में तैंतीस सागरोपम का सर्वायु व्यतीत किया। बैशाख शुक्ला चतुर्थी को चंद्र जब अभिजित नक्षत्र में आया तब वह विजय विमान से च्युत होकर रानी सिद्धार्था के गर्भ में अवतरित हुआ। उस समय वह तीन ज्ञान