Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charitra Part 3
Author(s): Ganesh Lalwani, Rajkumari Bengani
Publisher: Prakrit Bharti Academy
View full book text
________________
[ ५१
हैं; किन्तु उसके संग्रह में जो कर्मबन्धन उसने किया है उसका फल वह अकेला ही भोगता है । दुःख रूपी दावानल से भयंकर इस विशाल संसार रूपी अटवी में कर्म के वशीभूत होकर वह अकेला ही विचरण करता है । यदि कोई कहता है आत्मीय परिजन उसके संगी नहीं होने पर भी शरीर उसका साथी है कारण उसी से वह सुख-दुःख का अनुभव करता है तो वह कथन भी ठीक नहीं है कारण शरीर भी पूर्व जन्म से नहीं आता या परजन्म में साथ नहीं जाता, तब इस सहसा प्राप्त शरीर का साथी कैसे कहा जा सकता है । ( श्लोक २२७ २३४ )
'यदि कहा जाए धर्म-अधर्म इसका साथी है तो वह भी ठीक नहीं है कारण मोक्ष के लिए धर्म-अधर्म भी कोई सहायता नहीं देते । अतः जीव संसार में शुभ और अशुभ कर्म कर अकेला ही परिभ्रमण करता है और शुभ और अशुभ कर्म का फल भोगता रहता है । तभी तो मोक्ष रूपी महाफल जीव अकेला ही प्राप्त करता है परसंयोग का तो एकदम ही वहाँ अभाव है अतः संगी का तो प्रश्न ही नहीं उठता । जिस प्रकार संसार का जो दुःख वह अकेला ही भोगता है उसी प्रकार मोक्ष जनित सुख भी वह अकेला ही प्राप्त करता है । इसमें कोई संगी नहीं है । बिना कुछ लिए व्यक्ति जिस प्रकार एक मुहूर्त में नदी पार कर दूसरे किनारे पर चला जाता है उसी प्रकार परिग्रह, धन, देहादि में आसक्ति हीन जीव मुहूर्त्त मात्र में संसार समुद्र को अतिक्रम कर जाता है । अतः समस्त सांसारिक सम्बन्ध परित्याग कर शाश्वत सुखमय मोक्ष प्राप्ति के लिए जीव को एकाकी प्रयत्न करना उचित है ।' ( श्लोक २३५ - २४१ ) भगवान् की देशना सुनकर बहुत-से नर-नारियों ने आसक्ति रहित होकर व्रत ग्रहण किए। उनके चमरादि एक सौ गणधर हुए । भगवान् से उन्होंने त्रिपदी प्राप्त कर द्वादशांगी की रचना की । प्रथम प्रहर बीत जाने पर प्रभु ने देशना देनी बन्द की । तब आपके मुख्य गणधर आपके पाद पीठ पर बैठकर देशना देने लगे । द्वितीय प्रहर बीत जाने पर वे भी देशना से विरत हुए। भगवान् को वंदना कर सभी अपने-अपने निवास को लौट गए । ( श्लोक २४२ - २४५) भगवान् के तीर्थ में श्वेतवर्ण गरुड़ - वाहन तुम्बुरु नामक शासनदेव उत्पन्न हुए। उनके दाहिने दोनों हाथों में एक हाथ में