Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charitra Part 3
Author(s): Ganesh Lalwani, Rajkumari Bengani
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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ग्रहण कर ली । बहुत प्रकार के संकल्प ग्रहण और इन्द्रिय दमन कर स्वदेह से भी विगत मोह उन राजा ने दीर्घ काल तक व्रतों का पालन किया । जिस तीर्थङ्कर गोत्र कर्म का उपार्जन करना कठिन है उसी तीर्थङ्कर गोत्र कर्म को उन्होंने बहुत से अर्थ व्यय से क्रय किए रत्नों की भाँति बहुत से स्थानकों की उपासना द्वारा अर्जन किया। कालक्रम से आयुष्य शेष होने पर वे महामुनि व्रत रूपी वृक्ष के फलस्वरूप वैजयन्त विमान में उत्पन्न हुए | ( श्लोक ९-१२)
जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में पृथ्वी के आनन-तुल्य चन्द्रानन नामक एक नगर था । उस नगर में रत्नाकर में जैसे जहाज शोभित होता है उसी प्रकार बहुत प्रकार के रत्नों से विपणि श्रेणियां शोभित होती थीं। वहां कई आकारों के कई प्रकार के विविध वर्णों के गृह थे। देखकर लगता जैसे सान्ध्य - मेघ पृथ्वी पर उतर आए हैं । इसके उद्यान में प्रतिमाधारी निष्पन्द चारण मुनियों को देखकर भ्रम होता है कि मनुष्य के रूप में मानो पर्वत ही स्थित हो गए हैं । यहाँ की नारियाँ रत्न- प्राचीरों में अपने प्रतिबिम्बों को देखकर उसे अन्य नायिका समझ अपने प्रेमियों पर क्रुद्ध हो जातीं ।
(श्लोक १३-१७)
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महासेन जिनके सैन्यदल से पृथ्वी आच्छादित हो जाती और जो अपराजेय मुकुटमणि से समुद्रतुल्य थे, उस नगरी के राजा थे । भृत्य की भाँति वैभव उनकी शक्ति से युक्त थे मानो उन्होंने पृथ्वी पर अधिकार प्राप्त कर लिया हो । जिनका आदेश कभी अमान्य नहीं होता ऐसे वे राजा जब राज्य कर रहे थे तब स्वतः ही एक-दूसरे के द्रव्य जन्म से ही ग्रहण नहीं करते थे । वे सर्वेश्वर थे, समुद्र से अगाध, चन्द्र-से सुन्दर, कल्पतरु सम और दान में इन्द्र । द्वार से विस्तृत उनके वक्ष पर रमा उनके प्रति अनन्य भक्ति परायणा होकर गंगा के सैकत पर हँसिनी जिस प्रकार क्रीड़ा करती है उसी प्रकार क्रीड़ा करती । ( श्लोक १८-२२) उनकी लक्ष्मणा नामक सर्व-सुलक्षणा और मुख- सौन्दर्य से चन्द्र को भी परास्त करने वाली एक रानी थी । यद्यपि वह अतुलनीय लावण्ययुक्त ( लवणयुक्त ) थीं फिर भी उनकी दृष्टि और वाणी केवल अमृत ही बरसाती । प्रति कदम पर मानो कमल विकसित करती हुई वह धीर गति से चलतीं । उनकी भौंहे और भंगिमा वक्र