Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charitra Part 3
Author(s): Ganesh Lalwani, Rajkumari Bengani
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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लिए आपका उदय हुआ है। अपवित्रता फल प्रसव न कर चन्द्रकिरण द्वारा आहत शेफालिका की तरह मुझसे शीघ्र ही झर जाएगी। आपका इस देह को धारण करना ही समस्त जीवों का दुःख भार हर लेता है, आपके श्रमण शरीर की तो बात ही क्या जो कि सबको निर्भय कर देता है। मदस्रावी हस्ती जैसे अरण्य वृक्ष को उत्पाटित करता है वैसे ही आपने भी संसार के मूल कर्म को उखाड़ने के लिए जन्म ग्रहण किया है। जैसे अलंकार मुक्ताहार मेरे हृदय के बाहर शोभा पाता है उसी प्रकार आप हे त्रिलोकपति, मेरे हृदय के भीतर अवस्थान करें।'
(श्लोक ३९-४६) ___ यह स्तुति कर सौधर्मेन्द्र ने ईशानेन्द्र की गोद से प्रभु को लेकर यथाविधि रानी लक्ष्मणा के पास ले जाकर सुला दिया। राजा महासेन ने पुत्र-जन्मोत्सव मनाया । अर्हत् का जन्म जब अन्यत्र उत्सव का कारणभूत होता है तो जहाँ अर्हत् जन्म लेते हैं उस गृह का तो कहना ही क्या ? जब जातक गर्भ में था तब माँ को चन्द्रपान करने का दोहद उत्पन्न हुआ था और जातक का वर्ण भी चन्द्र-सा उज्ज्वल था अतः पिता ने नाम रखा चन्द्रप्रभ। (श्लोक ४७-४९)
शैशव में प्रभु का शरीर इस प्रकार दीप्तिमान था कि वे चन्द्र-किरण-से एक सुन्दर आलोक से शोभित होकर मानो तब भी वैजयन्त विमान में ही हैं ऐसा प्रतीत होता। हस्ति-शावक जिस प्रकार लता-वृन्त को पकड़कर बड़ा होता है वे भी उसी प्रकार धात्रियों का हाथ पकड़कर बड़े होने लगे। भगवान् जन्म से ही तीन ज्ञान सम्पन्न थे फिर भी उन्होंने अपना बाल्यकाल एक अबोध बालक की तरह ही व्यतीत किया। पथिक जिस प्रकार मनोहर कहानी की सहायता से दीर्घपथ का अतिक्रम करता है उसी प्रकार उन्होंने नानाविध क्रीड़ाएँ कर बाल्यकाल व्यतीत किया। (श्लोक ५०-५३)
एक सौ पचास धनुष ऊँचे प्रभु ने शैशव रूप नदी के दूसरे छोर और नारियों को वशीभूत करने के लिए इन्द्रजाल रूप यौवन को प्राप्त किया। अपने भोग कर्मों को अवशेष समझकर पिता की आज्ञा से उन्होंने योग्य राजकन्याओं का पाणि-ग्रहण किया । अपने जन्म के ढाई लाख पूर्व के पश्चात् स्वाध्याय सम्पन्न दीक्षा ग्रहण को उत्सुक प्रभु ने पिता द्वारा आदेश पाकर साढ़े छह लाख पूर्व और