Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charitra Part 3
Author(s): Ganesh Lalwani, Rajkumari Bengani
Publisher: Prakrit Bharti Academy
View full book text
________________
७८]
चौबीस पूर्वांग आनन्द से राज्य-शासन कर व्यतीत किए।
(श्लोक ५४-५७) यद्यपि प्रभु अपने दीक्षा ग्रहण का योग्य समय जानते थे फिर भी नियोजित ज्योतिषियों की तरह लोकान्तिक देवों द्वारा उद्बुद्ध हए। विदेश जाने के पूर्व धनी व्यक्ति जिस प्रकार दान देते हैं उसी प्रकार दीक्षा ग्रहण के अभिलाषी होकर उन्होंने एक वर्ष तक दान दिया। एक वर्ष के पश्चात् सिंहासन कम्पित होने पर इन्द्र भृत्य की तरह वहाँ आए और प्रभु का दीक्षा महोत्सव मनाया। तदुपरांत प्रभु देवेन्द्र, असुरेन्द्र और राजाओं से परिवत्त होकर सौन्दर्य से मनोमुग्धकारी मनोरमा नामक शिविका में बैठे। सबके द्वारा प्रशंसित, स्तुत और दृष्ट होते हुए भगवान् सहस्राम्रवन नामक उद्यान में पहुंचे। वहाँ शिविका से उतरकर प्रभु ने त्रिरत्न प्राप्त करने के लिए समस्त रत्नादि और अलंकारों को शरीर से उतार दिया। पौष कृष्णा त्रयोदशी को चन्द्र जब मैत्रेय नक्षत्र में था प्रभु ने तब अपराह्न समय दो दिनों के उपवास के बाद एक हजार राजाओं सहित श्रमण दीक्षा ग्रहण की। प्रभु को तभी मनःपर्यव नामक चौथा ज्ञान उत्पन्न हुआ जिससे लोक के समस्त जीवों के हृदयगत भावों को जाना जाता है। दूसरे दिन सुबह पद्मखण्डपुर के राजा सोमदत्त के घर खीरान्न ग्रहण कर प्रभु ने पारणा किया । देवों ने रत्नवर्षादि पाँच दिव्य प्रकट किए और राजा सोमदत्त ने जहाँ प्रभु खड़े थे एक रत्न-वेदिका निर्मित करवाई।
(श्लोक ५८-६७) जो तुषारपात सूर्यताप को परास्त कर देता है उस तुषारपात से भी अपराजित शीलवष्टि सह प्रबल तुफान व कठोर आबहवा में भी अचंचल शीत की रात्रि में, जबकि नदियों का जल जमकर बरफ हो जाता है, वे अविचलित होकर ध्यान करते । सिंह, व्याघ्रादि हिंस्र वन्य-पशुओं से अध्युषित अरण्य में वे जिस प्रकार जाते थे वैसे ही जनपूर्ण नगर में भी अवस्थान करते । निःसंग, मुक्त, राग-रहित, मौन और अपरिग्रही होकर भगवान् ने इस पृथ्वी पर छद्मस्थ अवस्था में अधिकांश समय ध्यान निमग्न होकर व्यतीत किया।
___ (श्लोक ६८-७१) प्रव्रजन करते हुए वे पुनः सहस्राम्रवन उद्यान में लौट आए।