Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charitra Part 3
Author(s): Ganesh Lalwani, Rajkumari Bengani
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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हैं, परम सुन्दर भी हैं, आप महान् लोगों में भी महान् हैं, पूजनीयों में भी पूजनीय हैं । इसलिए मैं आपका गुणगान करता हूं । सारे दोष सब में समाए हैं केवल गुण आप में है । मेरी यह स्तुति यदि अतिशयोक्ति लगे तो इसकी साक्षी यह परिषद् है । मैं अन्य कोई निधान नहीं चाहता, हे भगवन्, मैं बार-बार आपका दर्शन करना चाहता हूं ।' ( श्लोक ७२ - = ० ) शक्र के इस भाँति स्तव कर निरस्त हो जाने पर भगवान् पैंतीस दिव्य गृह सम्पन्न कण्ठ-स्वर से यह देशना दी -
ने
'महासागर की तरह यह संसार भी अपार है । इस संसार रूपी महासमुद्र में जीव चौरासी लाख जीवयोनि में नित्य भ्रमण करता है और नाटक के पात्र की तरह विविध प्रकार के रूप धारण करता है । कभी वह श्रोत्रीय ब्राह्मणकुल में जन्म ग्रहण करता है तो कभी अन्त्यज चण्डाल के घर । कभी स्वामी बनता है कभी सेवक, कभी देव तो कभी क्षुद्रकीट । जिस प्रकार भाड़े के मकान में रहने वाले जीव विविध प्रकार के गृहों में वास करते हैं, कभी भव्य प्रासाद तो कभी जीर्ण कुटीर उसी भाँति जीव भी स्व शुभाशुभ कर्मानुसार भिन्न-भिन्न योनि में जन्म व मृत्यु प्राप्त होते हैं । ऐसी कौन योनि है जिसमें जीव उत्पन्न नहीं हुआ ? लोकाकाश के समस्त प्रदेशों में एक भी प्रदेश ऐसा नहीं है जिसमें जीव ने कर्मों से प्रेरित होकर अनेक रूप धारण कर स्पर्श नहीं किया और इस पृथ्वी पर एक केश-सा अंश भी अवशेष नहीं जहां जीव ने जन्म-मृत्यु प्राप्त नहीं किया हो । ( श्लोक ८१-८५ )
। यथा - ( १ ) ये सभी कर्म
'संसार में मुख्यतः चार प्रकार के जीव हैं नारक, (२) तिर्यङ्क, (३) मनुष्य और (४) देवता । द्वारा बाध्य होकर अनेक प्रकार के दुःखों को भोगते हैं । प्रथम तीन नरकों में ऊष्ण वेदना है और शेष के तीन नरकों में शीत वेदना है । चतुर्थ नरक में ऊष्ण और शीत दोनों ही प्रकार की वेदना है । प्रत्येक नरक में क्षेत्रानुसार वेदना होती है । उन नारक क्षेत्रों में ऊष्णता और शीतलता इतनी अधिक होती है कि वहां यदि लोहे के पर्वत को ले जाना हो तो वह क्षेत्र के स्पर्श करने के पूर्व ही गल जाएगा या ट्टकर छिन्न-भिन्न हो जाएगा। इसके अतिरिक्त नारक जीवों के एक के द्वारा अन्य को और परमाधामी देवों द्वारा