Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charitra Part 3
Author(s): Ganesh Lalwani, Rajkumari Bengani
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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[६५ करेगा? हे पारिजात, हे सन्तान, हे मन्दार, हे हरिचन्दन और कल्पवृक्ष, क्या तुम सब अपने स्वामी का परित्याग करोगे? हमें क्या नरक तुल्य नारी के गर्भ में वास करना होगा और अशुचि रसों का आस्वादन कर देह का निर्माण करना होगा ? हाय ! कर्म द्वारा बाध्य होकर जठराग्नि रूप चल्हे में पकने का दुःख फिर सहन करना होगा? कहाँ रति-सुखों की आकर ये देवांगनाएँ और कहाँ अशुचि मानवी के साथ संभोग ?' इस भाँति स्वर्गीय सुखों का स्मरण कर विलाप करते-करते जैसे दीप निर्वापित हो जाता है उसी प्रकार वे स्वर्ग से च्युत हो जाते हैं। अत: इस संसार को असार समझकर बुद्धिमान मनुष्य का कर्तव्य है कि वह श्रामण्य ग्रहण कर संसार का अन्त करने वाली मुक्ति को प्राप्त करे। (श्लोक १५५-१७५)
__ भगवान् की यह देशना सुनकर एक हजार लोग श्रामण्य और अन्यों ने सम्यक्त्व ग्रहण कर लिया। भगवान् के सुव्रत आदि १०७ गणधर हुए। उन्होंने भगवान् से त्रिपदी धारण कर द्वादश अंगों की रचना की। भगवान की देशना समाप्त होने पर गणधर सुव्रत ने देशना दी। कुएँ का कार्य जैसे जल नाली करती है वैसे ही गुरु का कार्य शिष्य करता है : जब उन्होंने देशना शेष की तब त्रिलोकपति को प्रणाम कर देव स्व-स्व विमान को लौट गए। (श्लोक १७६-१७९)
भगवान् के तीर्थ में कृष्णवर्ण, हरिणवाहन कुसुम नामक यक्ष उत्पन्न हुआ जिसके दाहिनी ओर के एक हाथ में नींबू विजोरा था एवं अन्य हाथ अभय मुद्रा में था । बायीं ओर के एक हाथ में नकुल
और अन्य में अक्षमाला थी। वे शासन देव बनकर भगवान् के निकट अवस्थित हुए। इसी प्रकार कृष्णवर्णा, मानववाहना अच्युता देवी यक्षिणी रूप में उत्पन्न हुई । उनके दाहिने हाथ के एक हाथ में पाश और अन्य हाथ वरद-मुद्रा में था। बायीं ओर के एक हाथ में धनुष था और अन्य हाथ अभय-मुद्रा में था। वे भगवान् पद्मप्रभ की शासन देवी बनीं।
(श्लोक १८०-१८३) भगवान् के तीर्थ में ३ लाख ३६ हजार साधु, ४ लाख २० हजार साध्वियाँ, २ हजार ३ सौ पूर्वधर, १० हजार अवधिज्ञानी, १० हजार ३ सौ मनः पर्यवज्ञानी, १२ हजार केवली, १६ हजार १ सौ ८ वैक्रिय लब्धिधारी, ९ हजार ६ सौ वादी, २ लाख ७६ हजार श्रावक और ५ लाख ५ हजार श्राविकाएँ थीं। भगवान् ने