Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charitra Part 3
Author(s): Ganesh Lalwani, Rajkumari Bengani
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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मनुष्य क्रन्दन करने में मनुष्य जन्म को नष्ट करता है; किन्तु धर्मकार्य नहीं करता । जिस मनुष्य जीवन द्वारा अनन्त कर्म-समूहों को नष्ट किया जा सकता है उस मनुष्य जन्म में भी पापी मनुष्य पाप ही करता है । मनुष्य जन्म ज्ञान, दर्शन और चरित्र इन तीन रत्नों का पात्र है, आधार है । ऐसे सर्वोत्तम जीवन में पाप कर्म करना तो स्वर्ण-पात्र में मदिरा पान करने जैसा है । मनुष्य जन्म की प्राप्ति जब कि मिलायुग की तरह दुर्लभ है तब भी मूर्ख मनुष्य चिंतामणि रत्न के समान इस मनुष्य जीवन को पाप कर्म में वृथा नष्ट कर देते हैं। मनुष्य जन्म स्वर्ग और मोक्ष प्राप्ति का कारण रूप है; किन्तु आश्चर्य है इसी मनुष्य जन्म को प्राप्त करके भी वह पाप कर्म करके नरक प्राप्ति का साधन बना लेता है । अनुत्तर विमान के देव भी मनुष्य जन्म पाने की कामना करते हैं; किन्तु पापी मनुष्य उसी दुर्लभ मानव-जीवन को प्राप्त करके भी पाप कर्म में आसक्त रहते हैं । नरक का दुःख तो परोक्ष है; किन्तु मनुष्य जन्म का दुःख तो प्रत्यक्ष ही देखा जाता है । अतः इसका विस्तृत विवरण देना अनावश्यक है | ( श्लोक १४१ - १४७ )
'देवगति में भी दुःख कम नहीं है । शोक अमर्ष, खेद, ईर्ष्या और हीनता से देवों की बुद्धि भी विकृत है । अन्य का विशेष वैभव और स्वयं की हीन दशा देखकर वे अपने पूर्व जन्म में शुभ कर्म उपार्जन नहीं करने पर खेद करते हैं । अन्य बलवान और ऋद्धि सम्पन्न देवों द्वारा अपमानित और उनका प्रतिकार करने में असमर्थ होने के कारण अल्प ऋद्धि सम्पन्न देव भी चिन्ता करते हैं, शोकग्रस्त होते हैं । वे मन ही मन पश्चात्ताप करते हैं कि हमने पूर्व जन्म में कुछ भी सुकृत्य नहीं किया इसीलिए देवभव प्राप्त करके भी दास रूप में उत्पन्न हुए हैं। इसी प्रकार चिन्ता करते हुए अधिक वैभवशाली देवों के विमान, देवियाँ, रत्न और उपवनादि वैभव देखकर जीवन पर्यन्त ईर्ष्या की अग्नि में दग्ध होते रहते हैं । अधिक सत्वसम्पन्न देव, कम - सत्व सम्पन्न देवताओं की ॠद्धि एवं देवांगनाओं का हरण कर लेते हैं । इससे निराश्रित होकर वे देव निरन्तर शोक करते रहते हैं । पुण्यकर्म से देवगति प्राप्त करके भी वे काम, क्रोध और भय से आतुर रहते हैं । फलतः वे स्वर्ग के आनन्द का पूर्ण अनुभव नहीं कर पाते । ( श्लोक १४८ - १५४ )