Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charitra Part 3
Author(s): Ganesh Lalwani, Rajkumari Bengani
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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६२] जल और अस्त्र से उत्पन्न उनके भव का वर्णन करना दुःसाध्य है।'
(श्लोक १२५-१२७) 'मनुष्य जन्म में भी जो अनार्य देश में उत्पन्न होते हैं वे इतना पाप करते हैं कि कहा नहीं जा सकता । आर्य देश में जन्म लेने पर भी चण्डालादि जाति अनार्यों की तरह ही पाप कर भीषण कष्ट पाते हैं। आर्य देश में जन्म लेकर कुछ व्यक्ति अनार्यों की तरह आचरण करते हैं और परिणामस्वरूप दारिद्र और दुर्भाग्यादि द्वारा पीड़ित होकर निरन्तर दुःख-भोग करते हैं। कितने ही मनुष्य अन्य को वैभवशाली और स्वयं को दरिद्र देखकर दुःख और सन्तापपूर्वक जीवन व्यतीत करते हैं। कितने ही मनुष्य रोग, जरा व मरणासन्न होकर अशाता-वेदनीय कर्म के उदय से इस प्रकार विडम्बना भोगते हैं कि उन्हें देखकर भी दया आती है।' (श्लोक १२८-१३२)
___ 'मनुष्य गर्भावास में जो दुःख अनुभव करता है वह घोर नरक के दु:ख के अनुरूप है। गर्भावास में इस प्रकार कष्ट होता है जैसा रोग, वृद्धावस्था, दासत्व या मृत्यु से भी नहीं होता । अग्नि में तप्त सूइयों को यदि मनुष्य शरीर के प्रत्येक रोम में एक साथ बींध दिया जाए उससे जो दुःख होता है गर्भावास का दुःख उससे भी अनन्त गुना अधिक है।'
(श्लोक १३३-१३५) 'बाल्यावस्था मल-मूल में, यौवन रति-विलास में और वृद्धावस्था में श्वांस-खांसी आदि व्याधि से पीड़ित होकर व्यतीत होता है, फिर भी वे लज्जाहीन-सा व्यवहार करते हैं । अशुचित्व के कारण बाल्यकाल सूअर के जीवन-सा, काम-भोग के कारण यौवन गर्दभ के जीवन-सा और असमर्थ हो जाने से वृद्धावस्था बूढ़े वलद के जीवन-सा यापन करते हैं; किन्तु कभी मानव बनने की चेष्टा नहीं करते । शिशुकाल में वह मातृ-मुखी, यौवन में पत्नी-मुखी और वृद्धावस्था में पुत्र-मुखी हो जाता है; किन्तु कभी भी स्व अर्थात आत्म-मुखो नहीं होता । धनार्जन की इच्छा से विह्वल होकर मनुष्य नौकरी, कृषि, व्यवसाय, पशुपालन आदि कार्यों में रत होकर अपने जीवन को निष्फल व्यतीत करता है। कभी चोरी करता है, कभी जुआ खेलता है, कभी हीन कर्म कर वह संसार परिभ्रमण को बढ़ाता ही जाता है।
(श्लोक १३६-१४०) सुखी मनुष्य मोहान्ध होकर काम-विलास में और दुःखी