Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charitra Part 3
Author(s): Ganesh Lalwani, Rajkumari Bengani
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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प्राप्ति की भाँति दीर्घ काल के पश्चात् हे भगवन् आपकी अनन्त ज्ञान सम्पन्न वाणी को हम सुनेंगे । आपका दर्शन कर और विशेष रूप से आपकी मोक्ष द्वार उन्मुक्तकारी देशना सुनकर आज हम चरितार्थ होंगे । अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान, अनन्त शक्ति और अनंत सुख युक्त जिनकी आत्मा है ऐसे आपको मैं नमस्कार करता हूं । आप समस्त दिव्य गुणों से सम्पन्न और आत्मलीन हैं । इन्द्र पद प्राप्ति का तो मूल्य ही क्या है जबकि हे लोकनाथ, आपकी सेवा कर ही लोक आप जैसा हो सकता है ।' ( श्लोक ८३-९१) इन्द्र के इस प्रकार स्तुति कर चुकने के पश्चात् भगवान् ने अपनी देशना प्रारम्भ की :
'यहाँ जो कुछ भी है सब कुछ आत्मा से भिन्न है । फिर भी मूर्ख मनुष्य सांसारिक वस्तुओं के लिए कर्म कर भव सागर में डूबते रहते हैं । जबकि देह जीव से भिन्न है । तब एकदम भिन्न अर्थ परिजन बन्धु बन्धुओं की भिन्नता के विषय में तो कहना ही क्या है ? जो स्व-आत्मा से देह, अर्थ, बन्धु बान्धवों को भिन्न देखता है उन्हें दुःख रूपी शूल की वेदना क्यों होगी ? जब आत्मा से ही पार्थक्य है तब देहादि जो कि स्वभाव से ही भिन्न है उनकी भिन्नता का अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है । ( श्लोक ९२-९७ ) 'देह को इन्द्रियों द्वारा जाना जाता है; किन्तु आत्मा को अनुभव द्वारा जाना जाता है । यदि ऐसा ही है तो उनकी अभिन्नता का प्रश्न ही कैसे उठ सकता है ? ( प्रश्न ) यदि कहा जाए शरीर और आत्मा भिन्न हैं तब शरीर पर हुए आघात से आत्मा क्यों दुःखी है ? (उत्तर) जो आत्मा को देह से भिन्न अनुभव नहीं करते उन्हें देह पर हुए आघात का सचमुच ही अनुभव होगा; किन्तु जिन्हें देह और आत्मा भिन्न है यह ज्ञान हो गया है वे पितृ वियोग जैसे दुःख का भी अनुभव नहीं करते । जिन्हें इस भिन्नता का ज्ञान नहीं है उन्हें भूत्यादि सामान्य व्यक्ति के लिए भी दुःख होता है । अनात्मीय भावना से पुत्र भी पराया हो जाता है, जो भृत्य है वह भी आत्मीय भावना से अपना हो जाता है । संयोग सम्बन्ध को जो जितना आत्मीय समझकर स्नेह करता है वह अपने लिए उतना ही शोक रूपी शूल का सर्जन करता है । एतदर्थ जो ज्ञानी है वह समस्त वस्तुओं को आत्मा से भिन्न समझता है । इस भाँति जिसकी अन्यत्व