Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charitra Part 3
Author(s): Ganesh Lalwani, Rajkumari Bengani
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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तो क्षय करना था । कारण वे तो कर्म-क्षय में ही निरत रहते थे । युवराज रूप में पाँच लाख पूर्व व्यतीत होने पर पिता की आज्ञा से पिता द्वारा प्रदत्त पृथ्वी का भार उन्होंने ग्रहण किया । पृथ्वी का शासन करते हुए प्रभु ने चौदह लाख पूर्व और बीस पूर्वांग व्यतीत किए । ( श्लोक ५३ - ५७ ) संसार से उनकी विरक्ति को देखकर ब्रह्मलोक से लोकान्तिक देव आए और उन्हें उबुद्ध करते हुए बोले- 'जो स्वयंसंबुद्ध होते हैं हमारे द्वारा प्रतिबोधित नहीं होते, हम तो उन्हें स्मरण करवाते हैं । प्रभो आप तीर्थ की प्रतिष्ठा करिए ।' ऐसा कहकर वे स्वर्ग लौट गए । ( श्लोक ५८-५९ ) दीक्षा समारोह के लिए सुपार्श्व स्वामी ने दक्षिणा के कल्परत्न हों इस प्रकार एक वर्ष तक दान दिया । एक वर्ष पश्चात् आसन कम्पायमान होने से इन्द्र ने आकर उनका दीक्षा समारोह सम्पन्न किया । मोक्ष लक्ष्मी को प्राप्त करने के अभिलाषी जगत्पति ने रत्नजड़ित मनोहरा नामक शिविका में आरोहण किया । देव, असुर और राजन्यकों द्वारा परिवृत्त होकर वे सहस्राम्रवन नामक सुन्दर उद्यान में गए। तीनों जगत् के अलंकार रूप प्रभु ने अपने अलंकारों को खोल दिया और शक प्रदत्त देवदूष्य स्कन्ध पर रखा। ज्येष्ठ शुक्ला त्रयोदशी के दिन चन्द्र जब राधा नक्षत्र में था तब दो दिनों के उपवास के पश्चात् प्रभु ने सहस्र राजाओं सहित दीक्षा ग्रहण की। उन्हें तभी चतुर्थ मनः पर्यव ज्ञान उत्पन्न हुआ । मुहूर्त भर के लिए नारकी जीवों को भी सुखानुभव हुआ । ( श्लोक ६०-६६ )
दूसरे दिन पाटलीखण्ड नगरी में राजा महेन्द्र के प्रासाद में खीरान ग्रहण कर प्रभु ने दो दिनों के उपवास का पारणा किया । देवताओं ने रत्न वर्षा आदि पाँच दिव्य प्रकटित किए । राजा महेन्द्र जहाँ प्रभु खड़े थे वहाँ रत्न- मण्डित पाद- पीठ का निर्माण करवाया । ( श्लोक ६७-६८ )
जिस प्रकार पर्वत उत्ताप को विनष्ट करता है उसी प्रकार त्रिजगत्पति उपसर्ग रूप वाहिनी को पराजित कर देह की कामना से भी शून्य स्वर्ण और कुश में समभाव सम्पन्न हुए । त्रिजगत्पति ने छद्मस्थ रूप में एकाकी, मौनावलम्बी, नासाग्रदृष्टि सम्पन्न, विविध संकल्पों में संलीन, नियत श्रमशील, निर्भय, दृढ़, विविध प्रतिमाओं