Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charitra Part 3
Author(s): Ganesh Lalwani, Rajkumari Bengani
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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क्रोध भी धर्म के लिए ही होता था । और उनका कार्य ? उनकी यह विशेषता थी कि अर्हत् और सिद्ध जो उनके मस्तिष्क में रहते हैं वे मानो उनके हृदय में विराजते थे । वे दुःख से पीड़ितों के आश्रयरूप थे; किन्तु विरह - पीड़ितों के लिए कभी भी किसी भी प्रकार से नहीं । जैसे-जैसे दिन व्यतीत होते गए वैसे-वैसे वे संसार से विरक्त होते हुए अन्ततः आचार्य अरिदमन से दीक्षित हो गए । निष्ठा सहित व्रतों का पालन करते हुए कई एक स्थानकों की उपासना कर उन महामुनि ने तीर्थङ्कर गोत्र कर्म उपार्जन किया । योग्य समय में अनशन ग्रहण कर उन्होंने देह का त्याग किया और षष्ठ ग्रैवेयक में ऋद्धि सम्पन्न देव के रूप में उत्पन्न हुए ।
( श्लोक ३ - ११ ) जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में काशी देश की अलङ्कार तुल्य वाराणसी नामक एक नगरी थी । वहां के गृहों की प्राचीरें मणिजड़ित थीं इसलिए वहां प्रदीप केवल भगवान् की पूजा के समय ही जलता था । वहां के मन्दिरों के उच्च सुवर्ण - दण्डों में संलग्न चन्द्र मात्र धर्म-छत्र के रूप में ही शोभित होता था । जम्बूद्वीप के चारों ओर की जगती के वातायनों को भूलकर विद्याधरियां नगरी के प्राकारों के सुरक्षा-स्तम्भों पर बैठकर विश्राम - सुख उपभोग करती थीं । इस नगरी के प्रत्येक गृह में रति-पति को कल्याण मार्ग की शिक्षा देने के लिए ही जैसे रात में कपोत - कपोती कूजन करते थे । ( श्लोक १२-१६)
वहां के राजा का नाम था प्रतिष्ठ । वे धर्मानुरागी थे, भव्यजनों के लिए ख्याति की कल्पवृक्ष तुल्य और इन्द्र की तरह ख्याति सम्पन्न थे । समस्त पृथ्वी उनके चरणाश्रित थी । कारण, वे मेरु की तरह सामर्थ्य में अनन्त थे । वे जब दिग्विजय के लिए निकलते थे तब आकाश श्वेतछत्र में सारस-मय और मयूर पुच्छ के छत्र में मेघमय हो जाता था । युद्ध क्षेत्र में वीरव्रत से अलंकृत होकर शत्रुओं से अपना मुँह कभी नहीं फिराते थे मानो वे उनके याचक हों । जन्म से ही किसी सहायता के बिना उन दीर्घबाहु ने कमल क्रीड़न की तरह पृथ्वी को धारण कर रखा था । ( श्लोक १७-२१) पृथ्वी की भांति ही क्षमा, धृति आदि गुणों से सम्पन्न पृथ्वी नामक उनकी एक रानी थी । उनके सहज गुण और सौन्दर्य अलंकार