Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charitra Part 3
Author(s): Ganesh Lalwani, Rajkumari Bengani
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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दिए दुःख भी असह्य एवं भयङ्कर होते हैं । इस भांति नारक जीवों को क्षेत्र सम्बन्धी, परस्पर सम्बन्धी, परमाधामी देव सम्बन्धी विविध महादुःखकारी वेदना सहन करनी पड़ती है । ( श्लोक ८६-८९)
'नारक जीव संकीर्ण मुख की कुम्भी में उत्पन्न होते हैं । जिस प्रकार शीशा आदि धातु की मोटी शलाका को यंत्रों के मध्य से खींचखींचकर पतला किया जाता है उसी प्रकार संकीर्ण मुख की कुम्भी से परमाधामी देवता नारक जीवों को खींचकर बाहर निकालते हैं । धोबी जिस प्रकार शिलापट्ट पर कपड़े पछाड़ता है उसी प्रकार परमाधामी देव नारक जीवों के हाथ या पांव पकड़कर पत्थरों पर पछाड़ते हैं । बढ़ई जिस प्रकार आरे से काष्ठ चीरता है उसी प्रकार परमाधामी देव उन्हें चीरकर या कोल्हू में फेंककर तेल निकालने के लिए जिस प्रकार तिलों को पीसा जाता है उसी प्रकार उन्हें पीसते हैं । तृष्णातुर होने पर उन्हें वैतरणी नदी में फेंक दिया जाता है जिसका जल तप्त लौह और शीशे के रस जैसा होता है । वही जल उन्हें पीना पड़ता है । छाया के लिए व्याकुल होने पर परमाधामी देव उन्हें असि पत्र वन में ले जाते हैं जिसके पत्र तलवार की धार - से तीक्ष्ण होते हैं । वे पत्र उनकी देह पर गिरते हैं और उनकी देह को भी छिन्न-भिन्न कर देते हैं । वज्र शूल-सा तीक्ष्ण कंटकयुक्त शाल्मली वृक्ष को या अत्यन्त तप्त वज्राङ्गना को आलिङ्गन करने को बाध्य कर परमाधामी देव उन्हें पर स्त्री आलिङ्गन की पापवृत्ति को स्मरण करवाते हैं । मांसभक्षण लोलुपता की बात याद करवा कर उन्हीं के अङ्ग से मांस काट-काटकर उन्हें भक्षण करवाते हैं । मदिरापान स्मरण करवाकर तप्त लौह रस पान करवाते हैं । अत्यन्त पाप के उदय से भी उस वैक्रिय शरीर में भी कुष्ठ रोग, चर्म रोग, महाशूल, कुम्भीपाक आदि की भयंकर यातना निरन्तर अनुभव करते हैं । मांस की तरह ही उन्हें कड़ाह में भूना जाता है । उनके नेत्रों को कौए, बगुले आदि पक्षियों द्वारा उखाड़ा जाता है । इतने कष्टों को सहकर शरीर के टुकड़े-टुकड़े हो जाने पर भी वे मरते नहीं हैं । उनके छिन्न-भिन्न अङ्ग पारे की भांति पुनः मिल जाते हैं । इस प्रकार दुःख भोगकर नारक जीव निज आयु के अनुसार कम से कम दस हजार वर्ष तक एवं अधिक से अधिक तैंतीस सागरोपम काल व्यतीत करते हैं । ( श्लोक ९०-९९ )