Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charitra Part 3
Author(s): Ganesh Lalwani, Rajkumari Bengani
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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लिए समवसरण की रचना की । प्रभु ने पूर्व द्वार से प्रवेश किया और एक कोश अर्थात् सोलह सौ धनुष दीर्घ चैत्यवृक्ष की प्रदक्षिणा दी । तदुपरान्त 'नमो तित्थाय' कहकर वे पूर्वाभिमुख होकर सिंहासन पर बैठ गए। देवों ने अन्य तीन ओर उनकी प्रतिकृति रखी । देव, असुर और मानव यथास्थान खड़े हो गए । शक्र भगवान् की वन्दना कर इस प्रकार स्तुति करने लगे : ( श्लोक २१४ - २१७ )
'आपके गुणों से आनन्दित अशोक वृक्ष भ्रमरों के गुञ्जन के रूप में मानो गान कर रहा है, पल्लवों के आन्दोलन से मानो नृत्य कर रहा है । आपकी समवसरण भूमि पर देव एक योजन पर्यन्त जिनके वृन्त नीचे रहे ऐसे फूलों की घुटनों तक वर्षा की । मालव कौशिक आदि ग्राम और राग से पवित्र आपकी दिव्य ध्वनि को
आनन्द से हरिण की भाँति ग्रीवा ऊँची कर सुनते हैं । चन्द्र कौमुदी -सी श्वेत चँवर श्रेणियां आपके मुख कमल के चारों ओर उड्डीयमान हंस पंक्ति-सी लगती हैं । आप जब सिंहासन पर बैठकर देशना देते हैं तब मानो सिंह की सेवा करने आए हैं ऐसे हरिण उसे सुनने आते हैं । चन्द्र जिस प्रकार प्रभा मण्डल से परिवृत्त रहता है उसी प्रकार आप भा मण्डल से परिवृत्त चकोर रूपी नेत्रों को आनन्दित करते हैं । हे त्रिभुवनपति, आकाश में देवदुन्दुभि निनादित होकर पृथ्वी के राजाओं पर आपके एकछत्र आधिपत्य को व्यक्त करती है । त्रिजगत पर आपके आधिपत्यसूचक एक के ऊपर एक त्रिछत्र धर्म के सोपान रूप हैं । आपका दिव्य अतिशय रूप देखकर हे भगवन् कौन आश्चर्यचकित नहीं होता ? यहाँ तक कि मिथ्यात्वी तक भी ।' ( श्लोक २१८-२२६ ) इस प्रकार स्तुति कर शक के नीरव होने पर भगवान् सुमतिनाथ ने सर्वभाषा बोधगम्य देशना देनी प्रारम्भ की :
'जो व्यक्ति हिताहित और कार्याकार्य समझने की क्षमता प्राप्त कर चुके हैं उनका कर्त्तव्य पालन में उपेक्षा करना उचित नहीं है । स्व शरीर सम्बन्धी या पुत्र मित्र स्त्री आदि से सम्बन्धित जो कार्य किया जाता है वह सबका सब पर क्रिया है निज की क्रिया नहीं है । जीव अकेला ही जन्म लेता है, अकेला ही मृत्यु को प्राप्त होता है । अकेला ही पूर्व संचित कर्मों का फल भोग करता है । जिस विपुल वित्त को वह संग्रह करता है, उसे समस्त परिजन भोगते