Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charitra Part 3
Author(s): Ganesh Lalwani, Rajkumari Bengani
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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- अनशन (उपवास), ऊनोदरी (अल्पाहार ), वृत्ति संक्षेप (आहार्य वस्तुओं की संख्या कम करना), रसत्याग ( गरिष्ठ भोजन परिहार ), काय - क्लेश (शारीरिक कष्ट सहन करना), संलीनता ( शरीर संकुचित कर निर्जन स्थान में बैठना ) । आभ्यंतर तप - प्रायश्चित (कृत दुष्कर्मों का अनुताप व दण्ड ग्रहण), विनय, वैयावृत्य ( पीड़ितों व आर्त्त जनों की सेवा), स्वाध्याय (मनन), व्युत्सर्ग ( शरीर के प्रति ममता त्याग), ध्यान । क्षान्ति अर्थात् क्रोधादि दमन या क्षमा, मार्दव अर्थात् मान विजय या अहंकार का त्याग, आर्जव अर्थात् माया परित्याग - जनित मन-वचन काया की सरलता, मुक्ति अर्थात् बाह्य और आभ्यन्तरिक परिग्रह एवं तृष्णा का परित्याग । इस प्रकार के दशविध यतिधर्म का जो कि संसार-सागर को अतिक्रम करने में चिन्तामणि रत्न तुल्य हैं ज्ञानी व्यक्ति अबलम्बन लेते हैं ।' ( श्लोक ८० - ९० )
इस देशना को सुनकर पुरुषसिंह ने विनम्र भाव से कहा'दरिद्र को धन दिखाने की भाँति आपने मुझे धर्म दिखाया । गृहस्थ इस धर्म का पालन नहीं कर सकते कारण गार्हस्थ संसार रूपी वृक्ष के दोहद तुल्य हैं । हे भगवन्, अतः आप मुझे धर्म के निवास रूप प्रासाद तुल्य श्रामण्य दीजिए । संसार रूपी दरिद्र ग्रामवास से मैं श्रद्ध हो गया हूं ।' ( श्लोक ९१-९३ ) यह सुनकर विनयनन्दन सूरि बोले - 'तुम्हारी यह अभिलाषा उत्तम और धर्मरूप सम्पदा को प्रदान करने वाली है । उत्तम स्वभाव सम्पन्न, बुद्धिमान्, विचक्षण और दृढ़प्रतिज्ञ तुम व्रत ग्रहण करने के उत्तम अधिकारी हो । हम तुम्हारी इच्छा पूर्ण करेगे । तुम जाओ और अपने शुभकामी माता-पिता का आदेश लेकर आओ । कारण संसार में वे ही पूजनीय होते हैं ।' ( श्लोक ९४ - ९६ ) तब पुरुषसिंह ने जाकर माता-पिता को प्रणाम किया और करबद्ध होकर विनीत भाव से बोला- ' आपलोग आज्ञा दीजिए मैं व्रत ग्रहण करू ।' वे बोले - 'पुत्र, श्रामण्य तो उपयुक्त हैं; किन्तु जिन पाँच महाव्रतों का तुम्हें पालन करना होगा वे बहुत कठिन हैं । शरीर के प्रति ममता त्याग, रात्रि भोजन का परिहार, बयालिस दोषों से रहित आहार का ग्रहण करना, सर्वदा उत्साही, राग-रहित, परिग्रह - रहित, धर्म निरत होकर तुम्हें पाँच समितियों और तीन