Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charitra Part 3
Author(s): Ganesh Lalwani, Rajkumari Bengani
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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शीतकाल में शीत सहना पड़ता है, ग्रीष्मकाल में ग्रीष्म का उत्ताप, वर्षाकाल में मूसलाधार वर्षा के झोंके; किन्तु, यौवन में केवल भोग ही किया जाए ऐसा नहीं । अतः भाग्यवश ही पुण्य कर्म के फलस्वरूप मैंने गुरु व माता-पिता की भाँति आनन्ददायी इनका साक्षात् दर्शन प्राप्त किया।
(श्लोक ६७-७१) ऐसा सोचकर कुमार ने विनयनन्दन मुनि के निकट जाकर आनन्द चित्त से वन्दना की। मुनि ने भी आनन्द के अंकुर को उद्गमित करने के लिए वारितुल्य धर्मलाभ द्वारा उन्हें आनन्दित किया। कुमार उन्हें पुन: वन्दन कर बोला-'इस अल्पवय में आपने महाव्रत ग्रहणकर सभी को आश्चर्यचकित कर दिया है।' इस उम्र में आप विषय-सुख से विरक्त हुए हैं इसी से विषय-सुख रूपी किंपाक-फल का भयावह परिणाम हम जान सकते हैं। इसके अतिरिक्त हम यह भी जान गए हैं कि संसार में किसी भी वस्तु का कोई मूल्य नहीं है। तभी आप जैसे व्यक्ति इन्हें परित्याग करने का प्रयत्न करते हैं। आप मुझे संसार को कैसे अतिक्रम किया जा सकता है इसका उपदेश दें। सार्थवाह जैसे पथिक को अपने पथपर ले जाता है आप भी हमें उसी प्रकार अपने पथ पर ले चलें । पर्वत पर पत्थर लाने गए हुए किसी को जिस प्रकार हीरा प्राप्त हो जाता है उसी प्रकार इन्द्रिय सुख के लिए आये हुए मुझे आप जैसे महामुनि का साक्षात्कार हुआ ।'
__(श्लोक ७२-७८) कुमार के द्वारा इस प्रकार अनुरुद्ध होकर कन्दर्प शत्रु उन महामुनि ने मेघमन्द्र स्वर में कुमार को उपदेश दिया : (श्लोक ७९)
___ 'भूत-प्रेत को बुलाने की क्षमता प्राप्त कर जिस प्रकार ओझागण उन्हें अपना दास बना लेते हैं उसी प्रकार मैंने तप के द्वारा मान के उत्स रूप यौवन-शक्ति और सौन्दर्य को शमित किया है। संसार-सागर को अबाध रूप में अतिक्रम करने में जिन-प्रवक्त यतिधर्म ही निर्भरयोग्य नौका है। संयम, सुनत, शौच, अकिंचनत्व, तप, क्षान्ति, मार्दव, आर्जव और मुक्ति यही दस यतिधर्म हैं । संयम अर्थात् जीव-हिंसा नहीं करना, सुनृत अर्थात् झूठ नहीं बोलना, शौच अर्थात् अदत्तादान ग्रहण नहीं करना, ब्रह्मचर्य अर्थात् नौ बुप्ति सहित इन्द्रिय संयम, अकिंचनता अर्थात् शरीर के प्रति अनादर । तप-तपस्या दो प्रकार की है—बाह्य और आभ्यंतरिक । बाह्यतप