Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charitra Part 3
Author(s): Ganesh Lalwani, Rajkumari Bengani
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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असुर, मनुष्यों ने महा आनन्द से प्रेरित होकर अहोदान - अहोदान की ध्वनि की । ( श्लोक ११४- ११६ ) प्रभु के अन्यत्र विहार कर जाने पर जहां उन्होंने भिक्षा ग्रहण की थी वहां पूजा करने के लिए उन्होंने एक रत्नवेदी का निर्माण करवाया । अठारह वर्ष प्रभु ने छद्मस्थ अवस्था में व्रत पालन और उपसर्ग सहन करते हुए व्यतीत किए । ( श्लोक ११७- ११८ )
एक दिन प्रव्रजन करते हुए वे सहस्राम्रवन उद्यान में आए और दो दिनों के उपवास के पश्चात् प्रियाल वृक्ष के नीचे कायोत्सर्ग ध्यान में स्थित हो गए । द्वितीय शुक्ल ध्यान के पश्चात् घाती कर्म क्षय हो जाने पर पौष शुक्ला चतुर्दशी को चन्द्र जब अभिजित नक्षत्र में था उन्हें निर्मल केवलज्ञान की प्राप्ति हुई । उस समय एक मुहूर्त्त के लिए नारकी जीवों को भी आनन्द प्राप्त हुआ ।
( श्लोक ११९ - १२१)
तत्पश्चात् चौसठ इन्द्र वहां आए और एक योजन परिमित समवसरण की रचना की । देवों द्वारा संस्थापित स्वर्ण-कमलों पर पैर रखते हुए प्रभु पूर्व द्वार से समोसरण में प्रविष्ट हुए । भगवान् ने दो गव्यूत और बीस धनुष परिमित चैत्य वृक्ष की परिक्रमा की । तदुपरान्त 'नमो तित्थाय' कहकर वे मञ्च के मध्य रखे सिंहासन पर पूर्वाभिमुख होकर बैठ गए। फिर चतुविध संघ, देव, असुर और मनुष्य यथायोग्य द्वार से प्रवेश कर यथायोग्य स्थान में बैठ गए । ( श्लोक १२२-१२६) तब शक्र प्रभु को वन्दना कर पुलकित देही बने निम्नलिखित स्तुति करने लगे :
'मन, वचन, काया को संयमित कर आपने अपने मन को जीता है । इन्द्रिय संयमित नहीं है, असंयमित भी नहीं है इसी सम्यक् ज्ञान से आपने उन पर विजय प्राप्त की है । अष्टांगिक योग तो इसी का परिणाम है । यह अन्यथा होगा भी कैसे ? कारण, शैशवावस्था में ही तो योग आपका स्वभाव था । लम्बे समय तक आप मित्रों और इन्द्रिय विषयों से निरासक्त थे । अरूपी ध्यान भी आप में स्वाभाविक ही था जो कि साधारण में नहीं पाया जाता । शत्रु यदि किसी का उपकार भी करे तो जैसे वह आनन्दित नहीं होता उसी प्रकार मित्र भी यदि आपका उपकार करे तब भी दुःखी