Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charitra Part 3
Author(s): Ganesh Lalwani, Rajkumari Bengani
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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में हमें चतुर्थ मोक्ष का ही अनुसरण करना चाहिए । मोक्ष जो कि अनन्त सुखमय है वह श्रामण्य द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है ।' ( श्लोक १३६-१४९)
यह उपदेश सुनकर अनेक नर-नारियों ने श्रामण्य ग्रहण किया । बज्रनाभ प्रमुख ११६ गणधर हुए । विधि के अनुसार उन्हें व्याख्यान और गण का आदेश देकर भगवान् ने उन्हें शासन विषयक उपदेश दिए । भगवान् ने उन्हें उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य इस त्रिपदी के विषय में बतलाया । गणधरों ने इसी त्रिपदी के अनुसार द्वादशांगी की रचना की । एक प्रहर के पश्चात् देशना से प्रभु विरत हुए । तदुपरान्त राजा द्वारा लाई बलि को आकाश में उत्क्षिप्त किया गया जिसे देवता राजन्यवर्ग और साधारण मनुष्यों ने ग्रहण कर लिया । तदुपरान्त भगवान् वहाँ से उठकर मध्य प्राकार के निकट गए और उत्तर-पूर्व के कोण में रखे देवछन्द पर बैठ गए। तब प्रभु के पादपीठ पर उपवेशित होकर गणधर बज्रनाभ ने देशना दी । यद्यपि वे श्रुत केवली थे फिर भी लोगों ने उनकी देशना को केवली की भाँति ही सुना । वे द्वितीय प्रहर बीत जाने पर देशना से विरत हुए 1 तदुपरान्त अर्हत् को वन्दना कर देवता आदि सभी स्व-स्व स्थान को चले गए । ( श्लोक १५० - १५६)
उस तीर्थ में भगवान् के शासनदेव यक्षेश्वर उत्पन्न हुए । उनकी देह का रंग काला था, वाहन हाथी था । उनके चार हाथ थे । दाहिने दोनों हाथों में विजोरा और अक्षमाला थी एवं बाएँ दोनों हाथों में नकुल और अंकुश थे । इसी भाँति पद्मासीन कृष्णवर्णा कालिका नामक शासन देवी उत्पन्न हुई । उनके दाहिने एक हाथ में पाश और अन्य हाथ वरदमुद्रा में था । बाएँ दोनों हाथों में था क्रमशः सर्प और अंकुश ।
( श्लोक १५७ - १६०)
तदुपरान्त प्रभु चौंतीस अतिशय सहित ग्राम, खान, नगर आदि स्थानों में विचरण करने लगे । उनके संघ में तीन सौ हजार साधु, छह सौ तीस हजार साध्वियाँ, अट्ठानवें हजार अवधिज्ञानी, पन्द्रह सौ पूर्वज्ञानी, ग्यारह हजार छह सौ पचास मनः पर्यायज्ञानी, चौदह हजार केवली, उन्नीस हजार वैक्रिय शक्ति संपन्न, ग्यारह हजार वादी, दो सौ अट्ठासी हजार श्रावक और पाँच सौ सत्ताइस हजार श्राविकाएँ थीं । ( श्लोक १६१ - १६६ )