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- श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् बृहत्कल्प भाष्य का बड़ा महत्त्व माना गया है, इनमें अनेकानेक लौकिक कथाएं तथा साधुओं की प्राचीन आचार विधाएं-विचार सरणियाँ आदि का विवेचन है ।
___ जैन साधु संघ के प्राचीन जीवन दर्शन चर्या तथा विधि विधान आदि को जानने की दृष्टि से ये तीनों भाष्य अध्येतव्य है, नियुक्तियों और भाष्यों के बाद चूर्णियों का स्थान आता है, इनकी रचनाएं गद्य में हुई । कारण यह रहा हो कि प्राकृत गाथाओं में रचित नियुक्तियों और भाष्यों में जैन दर्शन-धर्म के सिद्धान्तों को विस्तृत रूप में प्रतिपादित करने की अपेक्षाकृत अधिक सुविधा नहीं रही । चूर्णियाँ गद्य में लिखी गई, अतः यहां वैसा सम्भावित था, साथ ही साथ चूर्णियों में भाषात्मक दृष्टि से एक अभिनव प्रयोग हुआ । उन संस्कृत एवं प्राकृत में मिश्रित रूप में हुई, इसे साहित्य में मणि प्रवाल न्याय कहा जाता है, मणियाँ और मंगे यदि एक साथ मिला दिये जाये तो भी वे अलग-अलग प्रतीत होते है । वैसे ही संस्कृत एवं प्राकृत को मिला दिए जाने के अनन्तर भी उन्हें भिन्न-भिन्न रूप में देखा जा सकता है । चूर्णियों में प्राकृत की प्रधानता रही है । चूर्णियों का कथा भाग प्राकृत में ही लिखा गया है जिसमें धर्मकथा, अर्थकथा, लोककथा आदि के रूप में वर्ण्यविषय लोकजनीन शैली में प्रस्तुत किए गए है । जहाँ-जहाँ अपेक्षित हुआ शब्दों की व्युत्पत्तियाँ भी प्राकृत में दी गई है । यथा प्रसङ्ग संस्कृत प्राकृत के अनेकानेक पद्य भी उद्धृत किए है । चूर्णियों में निशीथ सूत्र और आवश्यक सूत्र की चूर्णि का अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान है, इनमें पुरातत्व एवं इतिहास की अत्यधिक सामग्री प्राप्त होती है । प्राचीन काल में भिन्न-भिन्न देशों में कैसी-कैसी सामाजिक रीति और रिवाज थे, कैसेकैसे मेले, पर्व दिन तथा त्यौहार आदि थे, सुभिक्ष, दुर्भिक्ष, व्यापार, व्यवसाय, व्यापार के मार्ग, सामुद्रिक व्यापार, व्यापारियों के काफिले, सार्थवाह, दस्यु, चोर, प्रहरी, रक्षक, भोज्य सामग्री, वस्त्र प्रयोग, आभरण सज्जा, कला, कौशल आदि का चूर्णियों में जो विश्लेषण हुआ है, वह भारतीय विद्या के अध्येताओ के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण है । लोक कथा, भाषा विज्ञान आदि की दृष्टि से भी चूर्णि साहित्य का बड़ा महत्व है, अधिकांश चूर्णियो के रचनाकार के रूप में जिनदास गणि महत्तर का नाम विश्रुत है । बताया जाता है कि वे वाणिज्य कुल, कौटिकगण, ब्रजशाखा से सम्बन्धित थे । यद्यपि इनके समय के सम्बन्ध में निश्चित प्रमाण प्राप्त नहीं है, किन्तु विद्वान् छठी ईस्वी शताब्दी के आसपास इनके समय की परिकल्पना करते है । आचाराङ्ग, सूत्रकृताङ्ग, भगवती, कल्प, व्यवहार, निशीथ, पंचकल्प दशाश्रुत स्कंध,जीत कल्प, जीवाभिगम, प्रज्ञापना,शरीरपद, जम्बूद्वीप प्रज्ञा, उत्तराध्ययन, आवश्यक सत्र, दशवैकालिक, नन्दी तथा अनुयोगद्वार-सूत्र पर चूर्णिकाएं प्राप्त होती है ।
आगमों में वर्णित सिद्धान्तों एवं विचारों का विशद विस्तृत विश्लेषण करने हेतु संस्कृत में उन पर टीकाओं के रूप में विपुल साहित्य सर्जन हुआ । संस्कृत का भाषा शास्त्रीय दृष्टि से अपना असाधारण महत्व है। कम से कम शब्दों में अधिक से अधिक आशय व्यक्त करने का उसमें विलक्षण सामर्थ्य है ज्ञान जैसे विषयों के विशदीकरण में संस्कृत में जो सुविधा और अनुकूलता होती है, वह अन्य भाषा में नहीं है । जैन विद्वान् आग्रहवादी नहीं थे, वे सदा उपयोगितावादी रहे । जो वस्तु जिस कार्य में उपयोगी सिद्ध हो, लाभप्रद हो, उसे स्वीकार करने में उन्होंने कभी मुँह नहीं मोड़ा, यद्यपि जैन परम्परा का मूल साहित्य प्राकृत में है किन्तु विश्लेषणात्मक दृष्टि से जब प्रस्तुत करने का प्रसङ्ग आया तो जैन मनीषियों ने बड़ी रूचि के साथ संस्कृत को अपनाया । चूर्णियों के प्रसङ्ग में जो मणिप्रवाल न्याय से संस्कृत प्राकृत की मिश्रित रूप की चर्चा हुई है, वह इसी दृष्टिकोम की ओर इंगित करती है।
यहाँ एक बात और विचारणीय है, विद्वद्जनभोग्यत्व की दृष्टि से भी संस्कृत, का प्रयोग अपना महत्त्व रखता है । उपमीति भव प्रपञ्च कथा के रचयिता आचार्य सिद्धर्षि ने इस बात का स्पष्टीकरण करते हुए कि उन्होंने अपना ग्रन्थ प्राकृत में न रचकर संस्कृत में क्यों रचा, लिखा है कि संस्कृत के माध्यम से मेरे ग्रंथगतविचार
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