Book Title: Sutrakritang Sutra
Author(s): Sudarshanlal Acharya, Priyadarshan Muni, Chhaganlal Shastri
Publisher: Shwetambar Sthanakvasi Jain Swadhyayi Sangh

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Page 21
________________ | श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् चरणकरणानुयोग के अन्तर्गत आचाराङ्ग, प्रश्नव्याकरण, दशवैकालिक, निशीथ, व्यवहार, वृहत्कल्प, दशाश्रुतस्कन्ध को परिगृहीत किया गया । जिन आगमों में विशेषतः आख्यानों एवं कथाओं के आधार पर दान, शील, क्षमा, आर्जव, मार्दव, दया आदि धर्म के अङ्गों का विवेचन विश्लेषण है, वे धर्म कथानुयोग नामक वर्ग में लिए गये । इसमें ज्ञाताधर्मकथा, उपासकदशा, अन्तकृतदशा, अनुत्तरोपपातिदशा तथा औपपातिक, राजप्रश्नीय, निरयावली, कल्पावतंसिका, पुष्पिका, पुष्पचूलिका, वृष्णिदशा, विपाक तथा उत्तराध्ययन को लिया गया । जिन आगमों में गणित सम्बन्धी विषयों या गणित के आधार पर विषयों का विवेचन है वे गणितनुयोग वर्श में स्वीकार किये गए इसमें जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति, सूर्यचन्द्र प्रज्ञप्ति का समावेश है । जीव अजीव आदि ६६ द्रव्यों तथा वृतांतों का जिन आगमों में विस्तारपूर्वक सूक्ष्म विवेचन हुआ है वे द्रव्यानुयोग के अन्तर्गत आते इसमें सूत्रकृताङ्ग, स्थानाङ्ग, समवायाङ्ग तथा व्याख्या प्रज्ञाति (भगवती) सूत्र विशेषतः लिए गए है । जैन आगम जैन दर्शन सम्मत आचार मर्यादा, तत्वविश्लेषण, व्रतविवेचन, तपश्चरण अध्यात्म साधना एवं जन जन के आत्म सम्मान से सम्बद्ध विषयों का विशद विवेचन लिए हुए है, यह तो इनका अपना महत्त्व है ही, किन्तु साथ ही साथ प्राग्इतिहास कालीन भारतीय समाज, विधि, विधान, रीति, मर्यादा, लोक जीवन, कृषि, वाणिज्य, शासन इत्यादि सामाजिक विषयों का जो अत्यन्त मार्मिक साक्ष्य लिए हुए है वह मानव जाति के विकास की लम्बी कहानी में बहुत ही महत्त्पवूर्ण उपादान प्रस्तुत करते है। भारतीय साहित्य में अर्द्धमागधी आगम एवं पाली त्रिपिटक ही ऐसे ग्रन्थ है, जिनमें केवल राज्य वैभव और सत्ता प्रकर्ष का इतिवृत्त नहीं है वरन् जनसाधारण के जीवन से जुड़ी हुई घटनाएं है, उनमें भी विशेषतः जैन आगम अपना असाधारण महत्त्व लिए हुए है । किसान, मजदूर, व्यापारी, प्रशासक, आरक्षी दल, सैनिक, पाकविद्या, वस्त्र, पात्र, कला, लेखन, लिपि, चित्र, संगीत आदि ललित कलाओं का स्थान-स्थान पर जो सविस्तार वर्णन हुआ है वह मानवीय संस्कृति और इतिहास के अध्ययन में जीवन का साक्ष्य प्रस्तुत करते है अतः जैन आगमों का अध्ययन केवल जैन धर्म में आस्थाशील जनों के लिए ही उपयोगी नहीं है वरन् संस्कृति, धर्म, इतिहास, दर्शन, समाजविज्ञान, भाषाविज्ञान आदि विषयों पर अध्ययन करने वाले जनों के लिए भी बहुत ही उपयोगी है, अब तक इस विषय की ओर अध्येतृवृन्द का-विद्वद् जन का विशेष ध्यान नहीं गया अब इस दिशा के लोगों में व्यापक दृष्टि से उनके अध्ययन का भाव उजागर हुआ है, विशेषतः इस ओर भारतीयों का ध्यान तब आकृष्ट हुआ, जब सुप्रसिद्ध जर्मन विद्वान् डॉ. हरमनजेकोबी आदि ने जैन आगम तथा अर्धमागधी आदि के गहन और सूक्ष्म अध्ययन के साथ अपने को जोड़ा तथा इनकी व्यापक उपादेयता से विद्ववृन्द को अवगत कराया । । मेरा एक सहज सौभाग्य बना, मैंने प्राकृत, जैन दर्शन तथा जैन आगमों के अध्ययन में अपने जीवन का महत्वपूर्ण समय लगाया। भारत के प्राकृत, जैन दर्शन एवं अहिंसा के विशिष्टतम अध्ययन अनुसंधान केन्द्र वैशाली शोध संस्थान में मुझे अध्ययन अनुसंधान एवं अध्यापन का सुअवसर प्राप्त हुआ । तदनन्तर श्री वर्ध. स्था. जैन श्रमण संघ के युवाचार्य, सौम्यचेता, विद्वन्मूर्धन्य, प्रबुद्ध आगमज्ञ स्व-श्री मिश्रीमल जी 'मधुकर' ने बतीस आगमों के हिन्दी अनुवाद एवं विवेचन के साथ सम्पादन प्रकाशन की योजना बनाई, जिसके क्रियान्वयन में मेरा सतत योगदान रहा, मैंने उपासकदशाङ्ग सूत्र और जम्बूद्वीप आदि तीन आगमों का विवेचन, विश्लेषण, अनुवाद किया । अधिकांश आगम युवाचार्य श्री के जीवनकाल में ही प्रकाशित हो गए थे । अवशिष्ट आगम उनके स्वर्गवास के उपरान्त शीघ्र ही प्रकाशित हुए । हिन्दी अनुवाद सहित यह आगम बत्तीसी का एक सुन्दर संस्करण बना, जिससे विद्वत् वृन्द ने जगत में बहुत उपयोगी तथा लाभप्रद बताया । (xvii

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