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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम्
उपस्थित था, वे साधना हेतु सौराष्ट्र में गिरनार पर्वत की चन्द्रगुफा में आवास करते थे । दिगम्बर जैन संघ में यह विचार हुआ कि उनसे ज्ञान प्राप्त किया जाय ताकि वह परम्परा लुप्त न हो, इसलिए संघ ने पुष्पदन्त एवं भूत बली नामक दो परम भेघावी मुनियों को अध्ययन हेतु उनसे ज्ञान प्राप्त करने हेतु भेजा । दोनों मुनियों ने बड़े श्रम एवं लगन के साथ उनसे ज्ञान प्राप्त किया, ज्ञान प्राप्त कर वे लौट आये ।
आगे चलकर इन्हीं पुष्पदन्त एवं भूत बली नामक मुनियों ने ६ भागों में शास्त्र रचना की, जो षड्खण्डागम नाम से विख्यात है । आचार्य पुष्पदन्त ने एक सौ सत्तत्तर (१७७) सूत्रों में सत्प्ररूपणा की रचना की और आचार्यभूतबली ने छः हजार (६०००) सूत्रों में समग्र अवशिष्ट ग्रन्थ रचा। यह चतुर्दशपूर्व के अन्तर्गत द्वितीय अग्राह्मणी पूर्व के महाकर्मप्रकृति नामक चतुर्थ प्राभृत अधिकार के आधार पर मुख्य रूप से निर्मित हुआ । दिगम्बर आम्नाय में यह आगम तुल्य मान्यता लिए हुए है
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षट्खण्डागम पर समय-समय पर अनेक आचार्यों ने टीकाओं की रचना की । आठवीं शताब्दी में वीरसेन नामक एक महान् विद्वान् आचार्य हुए उन्होंने षड्खण्डागम पर अत्यन्त महत्त्वपूर्ण टीका लिखी, जो धवला के नाम से प्रसिद्ध है, वह संस्कृत - प्राकृत मिश्रित भाषा का रूप लिए हुए है, बहत्तर हजार (७२०००) श्लोक प्रमाण है । लगभग आचार्य धरसेन के समय में ही दिगम्बर परम्परा में गुणधर नामक बड़े सुसम्पन्न आचार्य थे, ऐसा माना जाता है कि उन्हें भी द्वादशाङ्ग सूत्र का अंशतः ज्ञान प्राप्त था, उन्होंने कषाय प्राभृत नामक सिद्धान्त ग्रन्थ का प्रणयन किया । आचार्य वीरसेन कषाय प्राभृत पर भी टीका लिखना चाहते ते, लेखन कार्य चालू किया, किन्तु द्विसहस्र श्लोक प्रमाण भाग ही लिख पाये, इस बीच वे दिवंगत हो गए, उनके अवशिष्ट कार्य को उनके विद्वान् शिष्य आचार्य जिनसेन ने पूर्ण किया। यह टीका जय धवला के नाम से प्रसिद्द है । इसका समग्र कलेवर साठ हजार श्लोक प्रमाण है । जैन कर्मवाद पर षड़खण्डागम अत्यन्त महत्वपूर्ण रचना है ।
अस्तु, ऊपर श्वेताम्बर परम्परा सम्मत जिन आगमों की चर्चा की गई है, श्वेताम्बरों में उनकी संख्या के सम्बन्ध में सब सम्प्रदाय एक मत नहीं है । श्वे. मन्दिर मार्गी सम्प्रदाय में ८४ या ४५ की संख्या में आगम माने जाते है, श्वे. स्थानकवासी, तेरापंथी सम्प्रदाय जो मूर्तिपूजा नहीं मानते ३२ आगम स्वीकार करते हैं - आचार, सूत्रकृत, स्थान, समवाय, व्याख्या प्रज्ञप्ति, ज्ञाताधर्मकथा, उपासक दशा, अन्तकृदशा, अनुत्तरौपपातिक दशा, प्रश्नव्याकरण, विपाक ।
११ अंग
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१२ उपाङ्ग – औपपातिक, राज प्रश्नीय, जीवाभिगम, प्रज्ञापना, सूर्य प्रज्ञप्ति, जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति, निरयावलिया, कल्पावतंसिका, पुष्पिका, पुष्पचूलिका, वृष्णि दशा ।
व्यवहार, वृहत्कल्प, निशीथ, दशाश्रुतस्कन्ध |
दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, नन्दी, अनुयोगद्वार ।
४ छेद
४ मूल
१ आवश्यक ।
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इनमें ११ अङ्ग तथा इक्कीस अङ्ग बाह्य है, जो अङ्गों के साथ विषय आदि की दृष्टि से संबद्ध है। आचार्य आर्य रक्षित सूरी ने विषय, व्याख्या, विवेचन आदि के भेद को दृष्टि में रखते हुए आगमों को चार वर्गों में विभक्त किया, जो अनुयोग कहलाते हैं । जिन आगमों में मुख्य रूप से आचारपरम्परा, व्रतविश्लेषण, सम्यक्ज्ञान दर्शन एवं चारित्र, संयम, तपश्चरण, कषायनिग्रह तथा वैयावृत्य आदि जो मूल गुण है- का विवेचन है, साथ ही साथ समिति, भावना, प्रतिमा, पिण्ड विशुद्धि, प्रतिलेखन, गुप्ति तथा अभिग्रह आदि उत्तर गुणों का वर्णन है, उन्हें चरण करणानुयोग नामक वर्ग में स्वीकार किया गया ।
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