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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् कुतुहलवश विद्याबल से सिंह का रूप बना लिया साध्वियाँ भयाक्रांत हो उठी, मुनि फिर मानव रूप में आ गए तब वे आश्वस्त हुई ।
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जब आचार्य भद्रबाहु को यह घटना विदित हुई तो वे स्थूलभद्र पर बहुत नाराज हुए, उन्होंने उनसे कहा - विद्या प्रदर्शन हेतु नहीं होती । एक जैन मुनि का जीवन लक्ष्य तो अध्यात्म और शांति है, तुमने यह अच्छा नहीं किया, अब आगे अध्ययन नहीं चलेगा । स्थूल भद्र ने अपनी त्रुटि स्वीकार करते हुए बड़ा पश्चाताप किया और निवेदन किया कि उन्हें पूर्वों का बाकी रहा ज्ञान पुनः प्रदान करें । अत्यन्त नम्रता भक्ति और आदर के साथ बार-बार निवेदन करने पर आचार्य भद्रबाहु ने इतना तो स्वीकार किया कि वे अवशिष्टचार पूर्वों का पाठ ज्ञान तो दे देंगे किन्तु अर्थ नहीं देंगे । तदनुसार उन्होंने स्थूलभद्र को चार पूर्व केवल पाठ मात्र पढ़ाये और उनको वापस लौटा दिया ।
इस प्रकार भद्रबाहु के अनन्तर चवदह पूर्वों का परिपूर्ण ज्ञान नहीं रहा, दश तो पाठ और अर्थ दोनों रहे, बाकी के चार पूर्व पाठ मात्र रहे ।
आचार्य स्थूलभद्र के नेतृत्व में आगमों के संकलन का पाटलिपुत्र में जो प्रथम प्रयास हुआ उसे आगमों की प्रथम वाचना कहा जाता है । पाटलिपुत्र में निष्पादित होने के कारण इसे पाटलिपुत्र वाचना के नाम से भी अभिहित किया जाता है । आगमों के संकलन या वाचन का तात्पर्य यह था कि जो कंठाग्र आगम थे, उन्हें मिलाकर ठीक कर लिया जाय, व्यवस्थित कर लिया जाय । वैसा हुआ किन्तु आगमों को कंठाग्र रूप में ही स्वायत्त रखा गया । जैसा ऊपर कहा गया है, जैन आगमों की तरह वेदों को भी श्रुति परम्परा या कंठाग्र रखने का ही क्रम था, वहाँ पुनः संकलन आदि की दृष्टि से कोई प्रयत्न नहीं हुआ, न आवश्यक ही माना गया । उसमें एक अन्तर है, वे संस्कृत में निबद्ध है, जो व्याकरण निष्ठ भाषा है । व्याकरण के नियमानुकूल जो संरचना होती है उसमें परिवर्तन की गुंजाइश नहीं रहती । साथ ही साथ वेदों की शब्द रचना को अपरिवर्तित तथा सुस्थिर बनाये रखने हेतु वहाँ विशेष प्रयत्न रहा है । संगीता पाठ, पद-पाठ, क्रमपाठ, जटापाठ तथा घनपाठ के रूप में एक ही मंत्र के उच्चारण के पांच क्रम रहे है, जिनमें बड़ी वैज्ञानिक विधि से मंत्र के उच्चारण क्रम से विभिन्न रूप में प्रयोग रखे गए है, जिससे शब्दों में जरा भी परिवर्तन संभावित नहीं है, उच्चारण क्रम को भी अविच्छिन्न रखने के लिए उदात्त, अनुदात्त, संस्वरित के रूप में वहाँ जो नियमन रहा है, उसका परिणाम यह है कि सैकड़ों वर्ष पूर्व वेदों का जिस रूप में उच्चारण होता था आज भी वैसा होता है । जैन आगमों के साथ एक अन्य स्थिति है, वे अर्द्ध मागधी प्राकृत में है जो लोक भाषा थी, संस्कृत की तरह वह व्याकरण के जटिल नियमों से परिबद्ध नहीं थी । लोकभाषा का ऐसा ही स्वभाव होता है, उसमें व्याकरण के कठोर बंधन नहीं होते, वह लोक प्रवाह के साथ चलती है वैसी भाषा में रचित ग्रन्थों में परिवर्तन होने की संभावना बनी रहती है । यही कारण है कि पाटलिपुत्र वाचना के लगभग २७० - २८९ वर्ष के अनन्तर अर्थात् भगवान् महावीर के निर्वाण के लगभग ८२७- ८४० वर्ष के बीच आगमों को व्यवस्थित करने का एक और प्रयास हुआ । संयोगवश तब भी भयानक दुर्भिक्ष की स्थिति आ पड़ी थी, फलतः साधुओं को भिक्षा मिलने में कठिनाई उत्पन्न हुई, उस कारण अनेक जैन साधु दिवंगत हो गए, आगमों के अभ्यास का जो समीचीन क्रम गतिशील था वह विच्छिन्न होने पर जैन संघ में यह विचार उठा कि आगमों को अपने शुद्ध स्वरूप में बनाये रखने हेतु एक साधु सम्मेलन आयोजित किया जाए । तदनुसार आर्य स्कन्दिल जो तब प्रमुख जैन आचार्य थे-के नेतृत्व में मथुरा में जो कभी जैन धर्म का बड़ा केन्द्र रहा साधुओं के सम्मेलन का आयोजन किया गया । भिन्नभिन्न स्थानों से वे साधु जिन्हें आगम उपस्थित थे, सम्मेलन में आये आगमों का वाचन हुआ, संकलन हुआ तदनुसार आगम सुव्यवस्थित किये गए ।
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