Book Title: Sutrakritang Sutra
Author(s): Sudarshanlal Acharya, Priyadarshan Muni, Chhaganlal Shastri
Publisher: Shwetambar Sthanakvasi Jain Swadhyayi Sangh

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Page 19
________________ श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् - आगमों के संकलन का यह दूसरा प्रयास था, इसलिए इसे द्वितीय वाचना कहा जाता है । मथुरा में सम्पन्न होने के कारण इसे माथुरी वाचना के नाम से भी अभिहित किया जाता है । ___ माथुरी वाचना के समय के आस-पास ही सौराष्ट्र प्रदेश के अन्तर्वी वल्लभी नामक नगर में आचार्य नागार्जुन सूरी के नेतृत्व में आगमों के संकलन व्यवस्थापन का दृष्टिकोण लिए एक सम्मेलन हुआ जिसमें आगम वेत्ता मुनियों द्वारा आगमों का वाचन पाठ मेलन आदि किया गया । आगम सुव्यवस्थित किये गए । एक ही काल में दो वाचनाएं होने का एक कारण यह हो सकता है कि किसी एक स्थान पर निकटवर्ती एवं दूरवर्ती सभी मुनियों का पहुंचना संभव न माना गया हो, जैन मुनि नियमतः पादविहारी होते है, वे वाहनों का प्रयोग नहीं करते, चाहे कितनी भी दूरी की यात्रा करनी हो, वे पैदल ही जाते, संभव है उत्तर भारत, पश्चिम भारत एवं पूर्वभारत के मुनि मथुरा पहुँचे हो, मध्यभारत एवं दक्षिण भारत के मुनियों के लिए मथुरा दूरवर्ती स्थान रहा हो, वल्लभी जो किसी समय जैन धर्म का भारत विख्यात केन्द्र था-के मथुरा की अपेक्षा मध्य एवं दक्षिण के मुनियों के निकट होने के कारण वहाँ दूसरा सम्मेलन आयोजित किया गया हो, ऐसा होना सर्वथा व्यावहारिक एवं उपयोगी प्रतीत होता है । यह भी दूसरी वाचना ही कही जाती है । वल्लभी में आयोजित होने के कारण इसे वल्लभी वाचना भी कहा जाता है। इस वाचना में भी आगम कण्ठस्थ क्रम में ही रखे गए, किन्तु ज्यों-ज्यों समय बीतता गया, लोगों की स्मृति और अधिक दुर्बल होने लगी । शारीरिक संहनन में भी वैसी शक्ति नहीं रही, अतः विपुल आगम ज्ञान-तन्मूलक पाठ को स्मृति में अक्षुण्ण बनाये रखना कठिन लगने लगा, विस्मृत होने लगा, तब यह आवश्यक प्रतीत हुआ कि आगमों की पुनः वाचना की जाय तदनुसार भगवान महावीर के निर्वाण के ९८०-९९३ वर्षों के पश्चात् वल्लभी में मुनि सम्मेलन आयोजित हुआ, उस समय के ख्यातनामा आगमवेत्ता आचार्य श्री देवर्द्धिगणिक्षमाश्रमण ने सम्मेलन का नेतृत्व किया । सम्मेलन में उपस्थित श्रुतधर-आगमज्ञ मुनियों के समक्ष पिछली दो वाचनाओं के संदर्भ विद्यमान थे । उन्होंने अपनी स्मृति के अनुसार आगमों का वाचन किया, मेलन किया, संकलन किया, उन्होंने मुख्य रूप में माथुरी वाचना को अपने समक्ष रखा । उसके आधार पर कार्य किया । विभिन्न श्रमण संघों में कुछ पाठान्तर प्रवृत्त हो गए थे, वाचना भेद भी कहीं-कहीं था, उन सबका समन्वय किया गया, तथा आगमों के पाठ व्यवस्थित किये गए, समन्वय का प्रयत्न करते हुए भी जो-जो पाठ समन्वित नहीं हो सके, वहाँ वाचनान्तर का संकेत कर दिया गया अर्थात् अमुक-अमुक वाचना के अनुसार ये-ये पाठ है । बारहवां अङ्ग दृष्टिवाद किसी भी श्रमण की स्मृति में उपस्थित नहीं था, अतः उसका संकलन नहीं किया जा सका, तथा उसका विच्छेद घोषित कर दिया गया । इस वाचना की एक विशेषता यह रही थी कि पूर्ववर्ती दोनों वाचनाओं में जहाँ आगमों को लिपिबद्ध नहीं किया गया, केवल स्मृति के आधार पर ही रखा गया, यहां यह सोचते हुए कि अब स्मृति पूर्ववत् काम नहीं दे पायेगी. आगम लिपिबद्ध किये गये । वर्तमान में जो आगम हमें उपलब्ध है, वे इसी तीसरी वाचना में संकलित आगमों का रूप लिए हुए है। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि उपलब्ध आगम जैनों की श्वेताम्बर परम्परा द्वारा स्वीकृत है, दिगम्बर परम्परा में इन्हें प्रामाणिक नहीं माना जाता. | वहां यह माना जाता है कि भगवान महावीर के निर्वाण के ६८३ वर्ष उपरान्त द्वादशाङ्ग का लोप हो गया, अतः भगवान महावीर द्वारा भाषित शब्दावली के रूप में किसी भी ग्रन्थ को दिगम्बर मान्यता नहीं देते । प्रथम तथा द्वितीय ईस्वी शताब्दी के मध्य में दिगम्बर परम्परा के अन्तर्गत धरसेन नामक प्रमुख आचार्य हुए । ऐसा कहा जाता है कि उन्हें दृष्टिवाद के कुछ अंश का ज्ञान था-स्मृति में वह (xy

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