Book Title: Sutrakritang Sutra
Author(s): Sudarshanlal Acharya, Priyadarshan Muni, Chhaganlal Shastri
Publisher: Shwetambar Sthanakvasi Jain Swadhyayi Sangh

Previous | Next

Page 17
________________ श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् प्राचीन काल में सभी धर्मों के शास्त्रों को शिष्य अपने गुरुओं से श्रवण कर कण्ठस्थ रखते थे, उत्तरोत्तर यह परम्परा चलती रही, वेदों को जो श्रुति कहा जाता है, सम्भवतः उसका यही कारण है क्योंकि वे आचार्य से सुनकर शिष्यों द्वारा स्मरण रखे जाते थे । जैन वाङ्मय को श्रुत कहे जाने के पीछे भी यही हेतु प्रतीत होता है । बौद्धों में भी श्रवण परम्परा से ही शास्त्र स्मृति में रखे जाते रहे, इसके पीछे यह भी कारण रहा हो कि इन सभी परम्पराओं के विरक्त जन-संन्यासी, निर्ग्रन्थ एवं भिक्षु अपने पास परिग्रह रखना पसंद नहीं करते थे, ग्रन्थ संग्रह भी परिग्रह का ही रूप है, यदि शास्त्र कण्ठस्थ हो तो पास में पुस्तकें रखने की कोई आवश्यकता ही नहीं होती। यह इसलिए सम्भव हो सका कि तब लोगों का शारीरिक संहनन बल तथा स्मरणशक्ति उत्कृष्ट कोटि की थी। भगवान महावीर के निर्वाण के अनन्तर लगभग ५६० वर्ष पर्यन्त यह श्रवण परम्परा द्वारा कण्ठस्थ शैली से शास्त्र स्वायत्तता का क्रम गतिशील रहा, किन्तु आगे व्यतीत होते समय के साथ-साथ लोगों का दैहिक संहनन, शारीरिक शक्ति और स्मृति क्रमशः हसित होने लगी । एक विघ्न और उपस्थित हुआ-मगध में, जो जैनों का मुख्य क्षेत्र था, १२ वर्ष का भीषण दुर्भिक्ष पड़ा । यह तब की बात है जब समग्र उत्तर भारत में सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य का शासन था । समुचित दोष वर्जित भिक्षा प्राप्त होने की स्थितियाँ वहाँ नहीं रही, जैन श्रमण इधर उधर बिखर गये । आहार पानी के अभाव में अनेक दिवंगत हो गए, जैन संघ में एक चिन्ता व्याप्त हुई कि शास्त्र वेत्ता अधिकांश मुनिगण समाप्त हो गए हैं, कहीं ऐसा न हो कि हमारे धर्म की यह दुर्लभ श्रुत सम्पति विलुप्त हो जाये । जो कुछ बचे खुचे मुनिगण है, जिन्हें शास्त्र स्मरण है, उनका सम्मेलन आयोजित किया जाय, तदनुसार आगमों को व्यवस्थित करने हेतु आचार्य स्थूलभद्र के नेतृत्व में पाटलिपुत्र में जैन साधुओं का सम्मेलन आयोजित हुआ, आगमों का पारायण किया गया, उन्हें यथावत् स्मृति में टिकाया गया । ___ इस सम्मेलन में ग्यारह अङ्गों का संकलन, व्यवस्थापन किया जा सका, बारहवाँ अंग दृष्टिवाद सम्मेलन में उपस्थित किसी भी साधु को स्मरण नहीं था । इतिहास के अनुसार उस समय केवल आचार्य भद्रबाहु ही दृष्टिवाद-चतुर्दश पूर्वो के ज्ञाता थे । वे श्रुत केवली कहे जाते थे । साधना की ओर उनका अत्यधिक झुकाव था, अतएव वे नेपाल में किसी एकांत स्थान में महाप्राण ध्यान की साधना में निरत थे । महाप्राण ध्यान क्या था इस सम्बन्ध में कहीं कोई विवेचन नहीं मिलता । जैन साधनापद्धति में ध्यान का निश्चय ही बड़ा महत्त्व रहा है, आचाराङ्ग सूत्र के प्रथम श्रुत स्कन्ध के नवम अध्ययन में भगवान् महावीर की चर्या का वर्णन है, वहाँ भगवान् द्वारा अनेक प्रकार से ध्यान किये जाने का वर्णन हुआ है । एग्ग पोग्गल निविददिट्ठी - एक पुद्गल पर अपनी दृष्टि को संनिविष्ट कर ध्यान किया जाना आदि वर्णनों से यह सूचित है । ऐसा प्रतीत होता हैं कि आज वे विविध ध्यान पद्धतियाँ सुरक्षित नहीं रह सकी है । यह महाप्राण ध्यान भी संभवतः श्वास प्रक्रिया पर आश्रित ध्यान की एक विशिष्ट साधना रही हो, अस्तु जैन संघ ने यह चिन्तन किया कि सुयोग्य मेधावी श्रमशील मुनियों को उनके पास अध्ययन हेतु भेजा जाय, वे उनसे दृष्टिवादं का ज्ञान प्राप्त करें । कहा जाता है तदनुसार पन्द्रह सौ मुनि इस लक्ष्य से भेजे गए, उनमें पाँच सौ अध्येता थे एवं एक हजार उनकी सेवा करने वाले । बड़े अनुनय विनय के साथ आचार्य भद्रबाहु से ज्ञान प्रदान करने हेतु निवेदन किया, आचार्य ने अनुग्रह कर उन्हें पढ़ाना प्रारम्भ किया । ___अध्ययन इतना जटिल था कि अध्ययनार्थी मुनि वहाँ टिक नहीं सके, धीरे-धीरे वहाँ से खिसकने लगे अन्त में एक मात्र स्थूलभद्र ही बचे, जो श्रमपूर्वक अध्ययन में संविरत रहे । दस पूर्वो तक उन्होंने पाठ और अर्थ भली भांति स्वायत्त कर लिया । ग्यारहवें पूर्व का अध्ययन प्रारम्भ होने को था, एक अप्रत्याशित घटना घटी, स्थूलभद्र की बहनें जो साध्वियाँ थी, अपने सहोदर मुनि के दर्शन हेतु वहाँ पहुँची । स्थूलभद्र ने

Loading...

Page Navigation
1 ... 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 ... 658