Book Title: Sutrakritang Sutra Author(s): Sudarshanlal Acharya, Priyadarshan Muni, Chhaganlal Shastri Publisher: Shwetambar Sthanakvasi Jain Swadhyayi SanghPage 15
________________ श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् प्रस्तावना परम सत्य की गवैषणा में चिरकाल से मानव चिन्तनशील रहा है, भौतिक सुख, सुविधाएँ, लौकिक अभिसिद्धियाँ, वैभव, समृद्धि आदि के रूप में जो जो आकर्षक उपादान प्राप्त हैं, जिनके पीछे मानव सदा से दौड़ता आ रहा है, आज भी दौड़ रहा है, परमशांति, परमसुख, अव्याबाध आनन्द अथवा तृप्ति के सम्पूरक नहीं बन पाये, यह सब प्राप्त कर लेने पर भी मानव ने अपने को अपूर्ण और अतृप्त माना । क्योंकि ये प्रत्यक्ष सरस तो रहे, किन्तु परिणाम में सभी विरस, विपरीत या दुःखप्रवण सिद्ध हुए । चिन्तन का क्रम आगे बढ़ता गया, उसके परिणामस्वरूप मानव ने एक ऐसे दिव्य आध्यात्मिक आनन्द की खोज की, जो परनिरपेक्ष एवं सर्वथा स्वसापेक्ष है । वहाँ सब विषमताएँ, प्रतिकूलताएं तथा क्लेश-परम्पराएं छूट जाती है, उनसे छुटकारा मिल जाता है । अतः उसे मुक्ति या मोक्ष के नाम से अभिहित किया गया है । चिन्तक एवं साधक उसे अवाप्त करने की दिशा में उत्तरोत्तर आगे बढ़े । उसके साधन के रूप में उन्होंने धर्म को उपात्त किया । धर्म को अनेक प्रकार से व्याख्यात किया गया । आत्मा का स्वभाव धर्म है, दुर्गति मे पतित होते जीव को जो बचा ले वह धर्म है, जिससे लौकिक अभ्युदय एवं निःश्रेयस् की सिद्धि हो वह धर्म है। इसका व्यावहारिक विवेचन श्रुत एवं चारित्र-सद्भाव एवं सत् चर्या धर्म है, इस विश्लेषण में समाविष्ट है । संसार में धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष ये चार पुरुषार्थ माने गए है, किसी को भी देखें, वह इन चारों के इर्द गिर्द प्रयत्नशील दृष्टिगोचर होता है, इन चारों को अर्थ एवं काम तथा धर्म एवं मोक्ष इन दो युगलों में बांटा जा सकता है, अर्थ एवं काम नितान्त संसारपरक या भौतिक है, धर्म और मोक्ष आध्यात्मिक या पारमार्थिक हैं । अर्थ और काम जब परमार्थ, अध्यात्म या धर्म एवं मोक्ष से अनुशासित, नियंत्रित होते है, तब वे ऐसी दिशा को अपनाते है, जो विनाश के बदले निर्माण की ओर उन्हें ले जाती है । धर्म के साथ जुड़े तात्विक विमर्श, उहापोह, चिन्तन तथा पर्यालोचन का यह सार है । जहाँ वह इस भाव भूमि के साथ आगे बढ़ा, उसने संसार की शांति, विश्व बन्धुत्व, समत्व और सौहार्द का संप्रसार किया । जहाँ इस आदर्श का परित्याग कर संकीर्ण तथा स्वार्थपरायण विचारधारा को लेकर गतिशीलता बनी, वहाँ धर्म के नाम पर ऐसे रक्तपात बहुल संघर्ष एवं उपद्रव हुए जो धार्मिकता के इतिहास के काले पृष्ठ कहे जा सकते है। भारतवर्ष चिरकाल से एक धर्मप्रधान देश रहा है । वैदिक, जैन एवं बौद्ध यहाँ के मुख्य धर्म है, उनके अपने-अपने शास्त्र है, अपने-अपने मन्तव्य है, अपनी-अपनी आचारविधाएं है । वैदिक परम्परानुवर्ती वेदो को अपने परम प्रामाणिक शास्त्र स्वीकार करते है, वेद शब्द विद् धातु से बना है, जिसका अर्थ ज्ञान है । वेदों में ऐहिक, पारलौकिक ज्ञान सम्बन्धी अनेक विषय ऋचाओं एवं मंत्रों में व्याख्यात हुए है । वैदिक धर्मानुयायी ऋक्, यजुः, साम तथा अथर्व इस चतुष्टयी को मानवकृत नहीं मानते, वे उन्हे अपौरुषेय कहते है, अर्थात् वे किसी पुरुष विशेष की रचनाएं नहीं है । परम पिता परमेश्वर ने ऋषियों के अन्त:करण में ज्ञान का उद्भास किया, जो विविध ऋचाओं और मन्त्रों के रूप में प्रकट हुआ, इसलिए ऋषि मन्त्रस्रष्टा नहीं कहे जाते, मन्त्र द्रष्टा कहे जाते है। बौद्धों के प्राचीनतम शास्त्र पिटक कहे जाते है, वे विनय पिटक, सुत्त पिटक एवं अभिधम्म पिटक के नाम से प्रसिद्ध हैं । ये तथागत बुद्ध द्वारा उपदिष्ट हैं, बौद्ध धर्मानुयायियों के अनुसार बुद्ध अर्हत् या सर्वज्ञ थे। ( xiPage Navigation
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